Wednesday, August 30, 2017

नासदीय सूक्त हिंदी and English

नासदीय सूक्त ऋग्वेदाच्या दहाव्या मंडळातील १२९ वे सुक्त आहे.  हे सूत्र काही हजार वर्षांपूर्वी रचले गेले. यात या विश्वाच्या उत्पत्तीसंबंधी माहिती दिली आहे.आश्चर्य म्हणजे यातील बरीच माहिती आजच्या वैज्ञानिक ज्ञानाशी मिळतीजुळती आहे.


नासदीय सुक्त हिंदी

सृष्टि-उत्पत्ति सूक्त
     नासदासीन्नो सदासात्तदानीं नासीद्रजो नोव्योमा परोयत्।
     किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नंभः किमासीद् गहनंगभीरम् ॥1॥

अन्वय- तदानीम् असत् न आसीत् सत् नो आसीत्; रजः न आसीत्; व्योम नोयत् परः अवरीवः, कुह कस्य शर्मन् गहनं गभीरम्।

अर्थ- उस समय अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति से पहले प्रलय दशा में असत् अर्थात् अभावात्मक तत्त्व नहीं था। सत्= भाव तत्त्व भी नहीं था, रजः=स्वर्गलोक मृत्युलोक और पाताल लोक नहीं थे, अन्तरिक्ष नहीं था और उससे परे जो कुछ है वह भी नहीं था, वह आवरण करने वाला तत्त्व कहाँ था और किसके संरक्षण में था। उस समय गहन= कठिनाई से प्रवेश करने योग्य गहरा क्या था, अर्थात् वे सब नहीं थे।

    न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।
    अनीद वातं स्वधया तदेकं तस्मादधान्यन्न पर किं च नास ॥2॥

अन्वय- तर्हि मृत्युः नासीत् न अमृतम्, रात्र्याः अह्नः प्रकेतः नासीत् तत् अनीत अवातम, स्वधया एकम् ह तस्मात् अन्यत् किञ्चन न आस न परः।

अर्थ– उस प्रलय कालिक समय में मृत्यु नहीं थी और अमृत = मृत्यु का अभाव भी नहीं था। रात्री और दिन का ज्ञान भी नहीं था उस समय वह ब्रह्म तत्व ही केवल प्राण युक्त, क्रिया से शून्य और माया के साथ जुड़ा हुआ एक रूप में विद्यमान था, उस माया सहित ब्रह्म से कुछ भी नहीं था और उस से परे भी कुछ नहीं था।

    तम आसीत्तमसा गूढमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदं।
    तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिना जायतैकं॥3॥

अन्वय- अग्रे तमसा गूढम् तमः आसीत्, अप्रकेतम् इदम् सर्वम् सलिलम्, आःयत्आभु तुच्छेन अपिहितम आसीत् तत् एकम् तपस महिना अजायत।

अर्थ- सृष्टिके उत्पन्नहोनेसे पहले अर्थात् प्रलय अवस्था में यह जगत् अन्धकार से आच्छादित था और यह जगत् तमस रूप मूल कारण में विद्यमान था, आज्ञायमान यह सम्पूर्ण जगत् सलिल=जल रूप में था। अर्थात् उस समय कार्य और कारण दोंनों मिले हुए थे यह जगत् है वह व्यापक एवं निम्न स्तरीय अभाव रूप अज्ञान से आच्छादित था इसीलिए कारण के साथ कार्य एकरूप होकर यह जगत् ईश्वर के संकल्प और तप की महिमा से उत्पन्न हुआ।

    कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
    सतो बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ॥4॥

अन्वय- अग्रे तत् कामः समवर्तत;यत्मनसःअधिप्रथमं रेतःआसीत्, सतः बन्धुं कवयःमनीषाहृदि प्रतीष्या असति निरविन्दन

अर्थ- सृष्टि की उत्पत्ति होने के समय सब से पहले काम=अर्थात् सृष्टि रचना करने की इच्छा शक्ति उत्पन्न हुयी, जो परमेश्वर के मन मे सबसे पहला बीज रूप कारण हुआ; भौतिक रूप से विद्यमान जगत् के बन्धन-कामरूप कारण को क्रान्तदर्शी ऋषियो ने अपने ज्ञान द्वारा भाव से विलक्षण अभाव मे खोज डाला।

    तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासी3दुपरि स्विदासी3त्।
    रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात् ॥5॥

अन्वय- एषाम् रश्मिःविततः तिरश्चीन अधःस्वित् आसीत्, उपरिस्वित् आसीत्रेतोधाः आसन् महिमानःआसन् स्वधाअवस्तात प्रयति पुरस्तात्।

अर्थ- पूर्वोक्त मन्त्रों में नासदासीत् कामस्तदग्रे मनसारेतः में अविद्या, काम-सङ्कल्प और सृष्टि बीज-कारण को सूर्य-किरणों के समान बहुत व्यापकता उनमें विद्यमान थी। यह सबसे पहले तिरछा था या मध्य में या अन्त में? क्या वह तत्त्व नीचे विद्यमान था या ऊपर विद्यमान था? वह सर्वत्र समान भाव से भाव उत्पन्न था इस प्रकार इस उत्पन्न जगत् में कुछ पदार्थ बीज रूप कर्म को धारण करने वाले जीव रूप में थे और कुछ तत्त्व आकाशादि महान् रूप में प्रकृति रूप थे; स्वधा=भोग्य पदार्थ निम्नस्तर के होते हैं और भोक्ता पदार्थ उत्कृष्टता से परिपूर्ण होते हैं।

    को आद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।
    अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव ॥6॥

अन्वय- कः अद्धा वेद कः इह प्रवोचत् इयं विसृष्टिः कुतः कुतः आजाता, देवा अस्य विसर्जन अर्वाक् अथ कः वेद यतः आ बभूव।

अर्थ- कौन इस बात को वास्तविक रूप से जानता है और कौन इस लोक में सृष्टि के उत्पन्न होने के विवरण को बता सकता है कि यह विविध प्रकार की सृष्टि किस उपादान कारण से और किस निमित्त कारण से सब ओर से उत्पन्न हुयी। देवता भी इस विविध प्रकार की सृष्टि उत्पन्न होने से बाद के हैं अतः ये देवगण भी अपने से पहले की बात के विषय में नहीं बता सकते इसलिए कौन मनुष्य जानता है जिस कारण यह सारा संसार उत्पन्न हुआ।

    इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
    यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ॥7॥

अन्वय- इयं विसृष्टिः यतः आबभूव यदि वा दधे यदि वा न। अस्य यः अध्यक्ष परमे व्यामन् अंग सा वेद यदि न वेद।

अर्थ- यह विविध प्रकार की सृष्टि जिस प्रकार के उपादान और निमित्त कारण से उत्पन्न हुयी इस का मुख्या कारण है ईश्वर के द्वारा इसे धारण करना। इसके अतिरिक्त अन्य कोई धारण नहीं कर सकता। इस सृष्टि का जो स्वामी ईश्वर है, अपने प्रकाश या आनंद स्वरुप में प्रतिष्ठित है। हे प्रिय श्रोताओं ! वह आनंद स्वरुप परमात्मा ही इस विषय को जानता है उस के अतिरिक्त (इस सृष्टि उत्पत्ति तत्व को) कोई नहीं जानता है।




Nasadiya Sukta with English translation

नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत् ।
किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद्गहनं गभीरम् ॥ १॥

Then even nothingness was not, nor existence, There was no air then, nor the heavens beyond it. What covered it? Where was it? In whose keeping? Was there then cosmic water, in depths unfathomed?

न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः ।
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किञ्चनास ॥२॥

Then there was neither death nor immortality nor was there then the torch of night and day. The One breathed windlessly and self-sustaining. There was that One then, and there was no other.

तम आसीत्तमसा गूहळमग्रे प्रकेतं सलिलं सर्वाऽइदम् ।
तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम् ॥३॥

At first there was only darkness wrapped in darkness. All this was only unillumined water. That One which came to be, enclosed in nothing, arose at last, born of the power of heat.

कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत् ।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ॥४॥

In the beginning desire descended on it - that was the primal seed, born of the mind. The sages who have searched their hearts with wisdom know that which is kin to that which is not.

तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासीदुपरि स्विदासीत् ।
रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात् ॥५॥

And they have stretched their cord across the void, and know what was above, and what below. Seminal powers made fertile mighty forces. Below was strength, and over it was impulse.

को अद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः ।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव ॥६॥

But, after all, who knows, and who can say Whence it all came, and how creation happened? the gods themselves are later than creation, so who knows truly whence it has arisen?

इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न ।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ॥७॥



Whence all creation had its origin, he, whether he fashioned it or whether he did not, he, who surveys it all from highest heaven, he knows - or maybe even he does not know.

मंत्रपुष्पांजली अर्थ..

मंत्रपुष्पांजली कुबेरला उद्देशून आहे.

ॐ यज्ञेन यज्ञमयजंत देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमान: सचंत यत्र पूर्वे साध्या:संति देवा: ।।
ॐ राजाधिराजाय प्रसह्यसाहिने । नमो वयं वैश्रवणाय कुर्महे ।
स मे कामान् कामकामाय मह्यंकामेश्वरो वैश्रवणो ददातु ।
कुबेराय वैश्रवणाय महाराजाय नम: ।
ॐ स्वस्ति साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं
वैराज्यं पारमेष्ठ्यं राज्यंमहाराज्यमाधिपत्यमयं
समंतपर्याईस्यात् सार्वभौम: सार्वायुष आंतादापरार्धात् ।
पृथिव्यैसमुद्रपर्यंताया एकराळिती । तदप्येषश्लोकोऽभिगीतो मरुत: परिवेष्टारो मरुत्तस्याऽवसन् गृहे ।
आविक्षितस्यकामप्रेर्विश्वेदेवा: सभासद'' इति ।
एकदंताय विध्महे वक्रतुण्डाय धीमहि ।तन्नोदंती प्रचोदयात् ।
मंत्रपुष्पांजली समर्पयामि ।।


मंत्रपुष्पांजली अर्थ..

देवांनी यज्ञ करून यज्ञपुरुषाची, यज्ञस्वरूपी परमेश्वराची पूजा केली. यज्ञाने पूजन करणे हा त्या काळी (त्रेतायुगात) प्रमुख धर्म, साधनामार्ग होता. जेथे पुरातन, अनादि असे उपास्यदेव आहेत असे देवलोक, साधना करणारे थोर महात्मे खरोखर प्राप्त करून घेतात. (यज्ञातील हविर्द्रव्ये ज्या देवतांप्रीत्यर्थ यज्ञ केला जात असे, त्या देवतांना पोहोचून त्या तृप्त होत असत व यज्ञ करणार्‍यांना इष्टफलाची प्राप्ती होत असे.)
राजाधिराज, सर्वशक्तिमान् अशा वैश्रवण ज्ञानी, ज्याने ज्ञान उत्तम प्रकारे श्रवण केले आहे अशा सर्व काही अनुकूल (प्रसह्य) घडवून आणणा-या राजाधिराज वैश्रवण कुबेराला आमचा नमस्कार असो . (कुबेराला वैश्रवण असेही नाव आहे. हा ब्रह्मदेवांचा पुत्र पुलस्त्य याचा मुलगा. त्याला ब्रह्मदेवानी अमरत्व दिले, तसेच धनाचा अधिपती व लोकपाल केले. त्याला शंकराशी सख्यत्व व यक्षांचे आधिपत्य आणि राजाधिराजपद दिले.) तो कामेश्वर कुबेर माझ्या सर्व कामना पूर्ण करो.
आमचे राज्य सर्वार्थाने कल्याणकारी असावे.आमचे साम्राज्य सर्व उपभोग्य वस्तूंनी परिपूर्ण असावे. येथे लोकराज्य असावे.आमचे राज्य आसक्ति,लोभ रहित असावे.अशा परमश्रेष्ठ महाराज्यावर आमची अधिसत्ता असावी.
आमचे राज्य क्षितिजाच्या सीमेपर्यंत सुरक्षित असावे.समुद्रापर्यंत पसरलेल्या पृथ्वीवर आमचे दीर्घायु राज्य असो. आमचे राज्य सृष्टीच्या अंतापर्यंत म्हणजे परार्धवर्ष पर्यंत सुरक्षित राहो.सर्वसामर्थ्यवान्, चक्रवर्ती राजा असलेले आमचे हे राज्य एकछत्री, सर्व ऐश्वर्याने युक्त, मोक्षप्रद, साधनेला पोषक, सिद्धीप्राप्त, सर्वश्रेष्ठ, सर्व विश्वाचे अधिपतीत्व असलेले महान, विशाल राज्य, विश्वाच्या अन्तापर्यंत, परार्ध (ब्रह्मदेवाची राहिलेली ५० वर्षे) संपेपर्यंत चिरकाल नांदो. आमचा राजा समुद्रवलयांकित पृथ्वीचा सम्राट असो.
या कारणास्तव अशा राजाच्या आणि राज्याच्या किर्तीस्तवना साठी हा श्लोक म्हटला आहे. अविक्षिताचा पुत्र, मरुताच्या राज्यसभेचे सर्व सभासद असलेल्या मरुत गणांनी परिवेष्टीत केलेले हे राज्य आम्हाला लाभो हीच कामना.

Monday, August 21, 2017

धबाबा लोटल्या धारा

गिरीचे मस्तकी गंगा। तेथुनी चालिली बळे ।
धबाबा लोटल्या धारा । धबाबा तोय आदळे ।।

गर्जतो मेघ तो सिंधू । ध्वनिकल्लोळ उठीला ।
कडय़ासी आदळे धारा । वात आवर्त होतसे ।।

तुषार उठती रेणू । दुसरे रज माजले ।
वात मिश्रीत ते रेणू । सीत मिश्रीत धुकटे ।।

कर्दमू निवडेना तो । मनासी साकडे पडे ।
विशाल लोटली धारा । ती खाली रम्य विवरे ।।




अशा एखाद्या तळ्याच्या काठी

अशा एखाद्या तळ्याच्या काठी बसून राहावे, मला वाटते
जिथे शांतता स्वतःच निवारा शोधीत थकून आली असते
जळाआतला हिरवा गाळ निळ्याशी मिळून असतो काही
गळून पडत असताना पान मुळी सळसळ करीत नाही

सावल्यांना भरवीत कापरे जलवलये उठवून देत
उगीच उसळी मारुन मासळी, मधूनच वर नसते येत
पंख वाळवीत बदकांचा थवा वाळूत विसावा घेत असतो
दूर कोपर्‍यात एक बगळा ध्यानभंग होऊ देत नसतो

हृदयावरची विचारांची धूळ हळूहळू जिथे निवळत जाते,
अशा एखाद्या तळ्याच्या काठी बसून राहावे, मला वाटते!

- अनिल

Monday, August 14, 2017

द्वारका

कृष्णाने गोकुळ द्वारकेस हलविले आणि द्वारका सोन्याची केली हे आपणास परिचित आहे. कृष्णाचे जन्मस्थान मथुरा. तो वाढला गोकुळात. मथुरा/गोकुळ हे यमुनेच्या काठी उत्तर भारतात. कृष्णाने कंसाला ठार मारले. कंस हा बलाढ्य मगध साम्राज्याचा सेनापती होता आणि यादवांच्या राज्याचा राजा होता. कंसाला मारल्याने कंसाचा सासरा मगध सम्राट जरासंध याने त्याच्यावर हल्ले सुरु केले. जयद्रथ  सिंधू प्रदेशाचा राजा होता. कंसानंतर तो मगधेचा सेनापती झाला. जरासंघ याने मथुरेवर हल्ले सुरु केले. यावेळी झालेल्या आठ युद्धात कृष्णाला प्रत्येक वेळी काही प्रदेश गमवावा लागला. त्यात यवन प्रदेशातून (वायव्य भारत) काल-यवन आपली बलाढ्य सेना घेऊन मथूरेवर चालून आला. त्याच वेळी जरासंघानेही हल्ल्याची तयारी केली. यामुळे कृष्णाने यादवांना मथुरेहून हलवून द्वारकेला आणले. (कालयवनाचा सामना कृष्णाने कसा केला हे ही युद्धशास्त्राच्या दृष्टीने रंजक आहे. पण ते विषयांतर होईल). द्वारकानगरी भव्य तटांनी वेढलेली होती आणि त्यात प्रवेश करण्यासाठी अनेक द्वारे होती. म्हणून अनेक द्वारांच्या या नगरीला द्वारका असे नाव मिळाले. मात्र संशोधनातून दिसते की द्वारकानागरी श्रीकृष्णाच्या आधी काही हजार वर्षे अस्तित्वात होती. श्रीकृष्णाने या नगरीचे 'सोन्याच्या' समृद्ध नगरीत रुपांतर केले.
द्वारका हे अरबी समुद्राकाठचे छोटे बेट होते. येथून त्याकाळच्या समृद्ध प्राचीन रोमन साम्राज्यांशी जलमार्गे व्यापार करणे सुलभ होते. भारतीयाना प्राचीन काळापासून नौकानायानाचे ज्ञान होते. मोहेंजोदारो काळातील लोथाल हे Dry Dock द्वारकेपासून जवळच होते. कृष्णाची मित्र साम्राज्ये येथून जवळच होती. त्यामुळे कृष्णाने येथे यादवांना वसविले. आता यादव दुधाचा व्यापार न करता परदेशांशी (प्राचीन रोमन साम्राज्ये) व्यापार करू लागले आणि अल्प काळातच द्वारका समृद्ध झाली...सोन्याची द्वारका म्हणून ओळखली जाऊ लागली. (त्या काळी समृद्ध नगरींना 'सोन्याची' म्हणून ओळखले जात होते. उदा. 'सोन्याची लंका'). कृष्ण हा शूर योद्धा, डावपेच आखण्यात प्रवीण होताच पण त्याने तो 'विकासपुरुष' असल्याचेही सिद्ध केले. झपाट्याने श्रीमंत झालेल्या यादवांमध्ये श्रीमंती दोषही तेवढ्याच वेगात शिरले. दारूच्या आहारी जाऊन त्यांनी स्वत:चा नाश ओढवून घेतला.
काळ पुढे सरकत होता. महाभारतातील महाविनाशानंतर भारतवर्ष कित्येक शतके मागे फेकले गेले. अज्ञानाच्या अंध:कारात बुडाले. प्राचीन ज्ञानसम्पदेकडे दुर्लक्ष झाले. प्राचीन ग्रंथांचा विपरीत अर्थ लावला जावू लागला. ज्ञान अनुभवातून- स्व-अनुभूतीतून शोधण्याऐवजी पुस्तकातून शोधण्याची परंपरा सुरु झाली. अंधश्रद्धांच्या कर्दमात भारतवर्ष रुतले.
जागतिक हवामानातही बदल घडत होते. समुद्राची पातळी वाढत होती. महाभारतापासून आजपर्यंत सुमारे दहा मीटरने समुद्राची पातळी वाढल्याचे आजचे शास्त्र सांगते. (गेल्या दहा हजार वर्षात समुद्राच्या पातळीतील वाढ सुमारे ६० मीटर्स आहे). अतिसमृद्ध द्वारका - सोन्याची द्वारका समुद्राने गिळली. पण येथील जनसमूहाच्या स्मृतीत द्वारकेची जागा बसली होती. म्हणूनच आजच्या द्वारकेला जाणारे यात्रिक या द्वारका बेटापाशी (बुडालेले द्वारका बेट समुद्रात आजच्या द्वारकेपासून साथ मैल दूर आहे) बोटीने जावून दक्षिणा वहात आहेत. द्वारकेच्या काठावर समुद्र नारायणाचे मंदिर आहे. यात्रिक समुद्रात जाऊन समुद्रनारायणाला दक्षिणा अर्पण करीत असत. या जागांवर अधिक लक्ष देण्याचे ठरविले गेले. समुद्राखाली जेथे काही बांधकामाचे अवशेष पाणबुड्यांना मिळाले त्या जागा निश्चित करण्यात आल्या.
१९६३ साली पुणे विद्यापीठाच्या एका संशोधनात द्वारका बेटाचे काही पुरावे मिळाले होते. पण त्यानंतर त्यावर फारसे संशोधन झाले नाही. काही वर्षांपूर्वी प्रा. एस. आर. राव यांनी परत यावर संशोधन सुरु केले. त्यांना महाभारतकालीन (ख्रिस्तपूर्व १५०० वर्षे) अनेक वस्तू, भांडी, बांगड्या प्रभास क्षेत्री मिळाल्या. मूळ द्वारका आजच्या द्वारकेपासून सुमारे ३० किलोमीटर दूर समुद्रात आहे. हे द्वारका बेट त्या काळी मुख्य भूमीला जोडलेले होते. द्वारका बेताला 'शंखोधारा' या नावानेही ओळखले जात होते.  येथे अनेक प्रकारचे शंख मिळत असत. या शंखांची आभूषणे बनत असत. या द्वारकेच्या बाजूने मोठमोठाल्या चिऱ्याच्या दगडांनी बांधलेली संरक्षक भिंत होती. ही भिंत काळाच्या ओघात जमिनीखाली गाडली गेली होती.  या सर्व गोष्टी प्रा रावांना आपल्या संशोधनात मिळाल्या.
पाण्याखाली केलेल्या संशोधनात पाणबुड्यांना तेथील बांधकामावर जमलेल्या समुद्री वनस्पतींचे जंगल हटवावे लागले. हे काम अत्यंत काळजीपूर्वक करावे लागले. अत्याधुनिक तंत्रज्ञानामुळे ते शक्य झाले. बांधकामात मोठाल्या दगडी कमानी मिळाल्या.
पाण्याखाली पाणबुड्यांच्या सहाय्याने सहाय्याने केलेल्या संशोधनात मातीची प्राचीन भांडी मिळाली. यात भोके असलेले मोहेंजोदारोच्या शेवटच्या काळात वापरले जाणारे भोके असलेले पात्रही (Perforated Jar) होते. काही भांड्यांवर मोहेंजोदारो काळातील लिपीत लिहिलेले आहे.
शोभा राज्याच्या शाल्वराजाने द्वारकेवर हल्ला केला. कृष्णाने असा प्रकार परत होऊ नये म्हणून काही उपाययोजना केल्या. त्यासाठी त्याने तीन प्राण्यांचे चित्र असलेली शंखांपासून बनविलेली मुद्रा प्रत्येक नागरिकाला दिली. ही मुद्रा जवळ बाळगणे आणि कधीही विचारणा केल्यास दाखविणे प्रत्येक नागरिकास बंधनकारक होते. या समुद्राखालील संशोधनात ही मुद्राही मिळाली. ही शंखापासून बनविलेली आहे. १८X२० मिलीमीटर आकाराची ही मुद्रा आहे. यावर बैल, एकश्रुंगी घोडा आणि बकरा या तीन प्राण्यांच्या तीन प्राण्यांच्या मुद्रा आहेत. अशाच मुद्रा बहारीन येथे मिळाल्या आहेत. (द्वाराकेतील नागरिक तेथे गेले असता त्यांनी या मुद्रा आपल्याबरोबर नेल्या असाव्यात).
द्वारकेजवळ मोठी भोके असलेले बोटींचे दगडी नांगर सापडले. असेच नांगर  सायप्रस आणि सिरीयाजवळ सापडले आहेत. लाकडाचे ओंडके यात खुपसून बोट समुद्रात नांगरली जात असे. सायप्रस आणि सिरीयाशी भारताचा व्यापार इ.स.पूर्व २००० वर्षांपासून चालत असल्याचे अनेक पुरावे मिळाले आहेत. द्वारका परदेशांशी व्यापार करूनच भरभराटीला आली होती.
द्वारकेत एक मोठाला नक्षीकाम केलेला दगडी खांब (Pillar) सापडला. एखाद्या महालाचा हा खांब असावा. या संशोधनात अनेक पितळी वस्तू सापडल्या. यात पितळी घंटांचा ही समावेश आहे. द्वारकेत सापडलेले एक काष्ठ शिल्प त्याचे carbon dating केल्यावर ख्रिस्त पूर्व साडेसात हजार वर्षे प्राचीन असल्याचे निष्पन्न झाले. हे carbon Dating भारतातील तसेच अमेरिकेतील प्रयोगशाळांत केले गेले. म्हणजेच Ice Age नंतर लगेचच भारतात शहरे वसविली गेली होती. या काळी फक्त भटक्या जमाती होत्या असा आजपर्यंत समज होता.
आजही येथील किनाऱ्यावर प्राचीन वस्तूंचे अवशेष वाहात येतात.
१९८७ मध्ये प्रथम भारतीय सामुद्री पुराणवस्तू संशोधन परिषद भरली होती यात देशोदेशींचे शास्त्रज्ञ सहभागी झाले होते. यात या द्वाराकेवरील प्रा. रावांच्या संशोधनाचे खूप कौतुक झाले.
महाभारत ही केवळ एक पौराणिक कथा नाही तर त्याला इतिहासाचा ही आधार आहे हेच यावरून स्पष्ट होते.
आज हे संशोधन काही अनाकलनीय कारणाने थांबविण्यात आले आहे. या प्रोजेक्टवर काम करण्यात शास्त्रज्ञांना आता रस नाही असे सांगण्यात येते. S R Rao यांच्यानंतर ज्या शास्त्रज्ञाकडे या प्रोजेक्टची सूत्रे आली तो अचानक गायब झाला. यात या संशोधकांना कोणी धमकाविले तर नाही ना?
शास्त्रज्ञ S R Rao यांनी या बुडालेल्या द्वारकेतील पुराणवस्तूंच्या जतनासाठी काही निधीची मागणी केली होती. ती पण मान्य झाली नाही. निश्चितपणे काही राजकारणी लोकांच्या हितसंबंधांना बाधा येणार असल्यानेच हे झाले असावे. सध्याचे सरकार यात लक्ष घालणार काय?

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