Sunday, September 3, 2017

व्यूहरचना

महाभारत वाचताना चक्रव्यूहाचा उल्लेख येतो. आपणापैकी अनेकांना माहित आहे की अभिमन्यूचा मुलगा अभिमन्यू कौरवांनी लावलेल्या चक्रव्युहात शिरला होता. परंतु त्यातून बाहेर कसे पडायचे याचे ज्ञान नसल्याने तो तेथेच मारला गेला.
युद्धात एका विशिष्ट पद्धतीने सैनिकांना उभे करणे याला व्यूह म्हणत असत. यात सैनिक कसे उभे आहेत, विविध सैन्यविभाग (पायदळ, घोडदळ इत्यादी) कोठे आहेत, सेनानायक कोठे असतील, जेव्हा कूच करण्याची वेळ येईल तेव्हा कोण कसे जाईल याची सर्व नियोजन या व्युहरचनेत असे. दोन्ही बाजूंच्या सेना रोज वेगवेगळे व्यूह रची असत आणि त्यासंबंधी अतिशय गुप्तता बाळगली जात असे.
एखाद्या सैन्याने एक व्यूहरचना केल्यास दुसरा पक्ष त्या व्युहाला भगदाड पाडू शकेल अशी व्युहरचना करून शत्रूवर चालून जात असे. काही प्रमाणात बुद्धिबळात वापरल्या जाणाऱ्या व्युहाप्रमाणेच हे असे.
महाभारत युद्ध अठरा दिवस चालले. यात प्रचंड प्रमाणात नरसंहार झाला.  कौरव आणि पांडव यांच्या वंशातील फक्त पाच पांडव आणि अर्जुनाचा नातू (अभिमान्युचा मुलगा) परीक्षित हे पुरूषच युद्धसमाप्तीनंतर जिवंत राहिले. परीक्षित हा ही मातेच्या उदरात होता आणि अपुऱ्या दिवसांचा मृतवत जन्मला. कृष्णाने उपाय केल्याने तो वाचला. परंतु त्याची प्रकृती क्षीण राहिली. महाभारत युद्धात भारतवर्षातील (अफगाणिस्तान पासून उत्तरपूर्व राज्यांपर्यंत) बहुतेक सर्व राज्ये सामील झाली होती. या अतिप्रचंड नरसंहारामुळे (युद्धानंतर पांडवांची सर्व सेना अश्वत्थामाने ब्रम्हास्त्र टाकून मारली. कौरवांची सेना युद्धातच मारली गेली) भारतवर्षात पुरुषांची संख्या अत्यंत कमी झाली. याचे परिणाम भारताला पुढील हजार वर्षे भोगावे लागले.
महाभारत युद्धात पुढील व्यूह वापरले गेले.

  1. चक्रव्यूह
  2. वज्र व्यूह
  3. क्रौंच व्यूह
  4. अर्धचन्द्र व्यूह
  5. मंडल व्यूह
  6. चक्रशकट व्यूह
  7. मगर व्यूह
  8. औरमी व्यूह
  9. गरुड़ व्यूह
  10. श्रीन्गातका व्यूह
या व्युहांची माहिती पुढील लेखांत घेऊ.
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Wednesday, August 30, 2017

नासदीय सूक्त हिंदी and English

नासदीय सूक्त ऋग्वेदाच्या दहाव्या मंडळातील १२९ वे सुक्त आहे.  हे सूत्र काही हजार वर्षांपूर्वी रचले गेले. यात या विश्वाच्या उत्पत्तीसंबंधी माहिती दिली आहे.आश्चर्य म्हणजे यातील बरीच माहिती आजच्या वैज्ञानिक ज्ञानाशी मिळतीजुळती आहे.


नासदीय सुक्त हिंदी

सृष्टि-उत्पत्ति सूक्त
     नासदासीन्नो सदासात्तदानीं नासीद्रजो नोव्योमा परोयत्।
     किमावरीवः कुहकस्य शर्मन्नंभः किमासीद् गहनंगभीरम् ॥1॥

अन्वय- तदानीम् असत् न आसीत् सत् नो आसीत्; रजः न आसीत्; व्योम नोयत् परः अवरीवः, कुह कस्य शर्मन् गहनं गभीरम्।

अर्थ- उस समय अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति से पहले प्रलय दशा में असत् अर्थात् अभावात्मक तत्त्व नहीं था। सत्= भाव तत्त्व भी नहीं था, रजः=स्वर्गलोक मृत्युलोक और पाताल लोक नहीं थे, अन्तरिक्ष नहीं था और उससे परे जो कुछ है वह भी नहीं था, वह आवरण करने वाला तत्त्व कहाँ था और किसके संरक्षण में था। उस समय गहन= कठिनाई से प्रवेश करने योग्य गहरा क्या था, अर्थात् वे सब नहीं थे।

    न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।
    अनीद वातं स्वधया तदेकं तस्मादधान्यन्न पर किं च नास ॥2॥

अन्वय- तर्हि मृत्युः नासीत् न अमृतम्, रात्र्याः अह्नः प्रकेतः नासीत् तत् अनीत अवातम, स्वधया एकम् ह तस्मात् अन्यत् किञ्चन न आस न परः।

अर्थ– उस प्रलय कालिक समय में मृत्यु नहीं थी और अमृत = मृत्यु का अभाव भी नहीं था। रात्री और दिन का ज्ञान भी नहीं था उस समय वह ब्रह्म तत्व ही केवल प्राण युक्त, क्रिया से शून्य और माया के साथ जुड़ा हुआ एक रूप में विद्यमान था, उस माया सहित ब्रह्म से कुछ भी नहीं था और उस से परे भी कुछ नहीं था।

    तम आसीत्तमसा गूढमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदं।
    तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिना जायतैकं॥3॥

अन्वय- अग्रे तमसा गूढम् तमः आसीत्, अप्रकेतम् इदम् सर्वम् सलिलम्, आःयत्आभु तुच्छेन अपिहितम आसीत् तत् एकम् तपस महिना अजायत।

अर्थ- सृष्टिके उत्पन्नहोनेसे पहले अर्थात् प्रलय अवस्था में यह जगत् अन्धकार से आच्छादित था और यह जगत् तमस रूप मूल कारण में विद्यमान था, आज्ञायमान यह सम्पूर्ण जगत् सलिल=जल रूप में था। अर्थात् उस समय कार्य और कारण दोंनों मिले हुए थे यह जगत् है वह व्यापक एवं निम्न स्तरीय अभाव रूप अज्ञान से आच्छादित था इसीलिए कारण के साथ कार्य एकरूप होकर यह जगत् ईश्वर के संकल्प और तप की महिमा से उत्पन्न हुआ।

    कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।
    सतो बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ॥4॥

अन्वय- अग्रे तत् कामः समवर्तत;यत्मनसःअधिप्रथमं रेतःआसीत्, सतः बन्धुं कवयःमनीषाहृदि प्रतीष्या असति निरविन्दन

अर्थ- सृष्टि की उत्पत्ति होने के समय सब से पहले काम=अर्थात् सृष्टि रचना करने की इच्छा शक्ति उत्पन्न हुयी, जो परमेश्वर के मन मे सबसे पहला बीज रूप कारण हुआ; भौतिक रूप से विद्यमान जगत् के बन्धन-कामरूप कारण को क्रान्तदर्शी ऋषियो ने अपने ज्ञान द्वारा भाव से विलक्षण अभाव मे खोज डाला।

    तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासी3दुपरि स्विदासी3त्।
    रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात् ॥5॥

अन्वय- एषाम् रश्मिःविततः तिरश्चीन अधःस्वित् आसीत्, उपरिस्वित् आसीत्रेतोधाः आसन् महिमानःआसन् स्वधाअवस्तात प्रयति पुरस्तात्।

अर्थ- पूर्वोक्त मन्त्रों में नासदासीत् कामस्तदग्रे मनसारेतः में अविद्या, काम-सङ्कल्प और सृष्टि बीज-कारण को सूर्य-किरणों के समान बहुत व्यापकता उनमें विद्यमान थी। यह सबसे पहले तिरछा था या मध्य में या अन्त में? क्या वह तत्त्व नीचे विद्यमान था या ऊपर विद्यमान था? वह सर्वत्र समान भाव से भाव उत्पन्न था इस प्रकार इस उत्पन्न जगत् में कुछ पदार्थ बीज रूप कर्म को धारण करने वाले जीव रूप में थे और कुछ तत्त्व आकाशादि महान् रूप में प्रकृति रूप थे; स्वधा=भोग्य पदार्थ निम्नस्तर के होते हैं और भोक्ता पदार्थ उत्कृष्टता से परिपूर्ण होते हैं।

    को आद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।
    अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव ॥6॥

अन्वय- कः अद्धा वेद कः इह प्रवोचत् इयं विसृष्टिः कुतः कुतः आजाता, देवा अस्य विसर्जन अर्वाक् अथ कः वेद यतः आ बभूव।

अर्थ- कौन इस बात को वास्तविक रूप से जानता है और कौन इस लोक में सृष्टि के उत्पन्न होने के विवरण को बता सकता है कि यह विविध प्रकार की सृष्टि किस उपादान कारण से और किस निमित्त कारण से सब ओर से उत्पन्न हुयी। देवता भी इस विविध प्रकार की सृष्टि उत्पन्न होने से बाद के हैं अतः ये देवगण भी अपने से पहले की बात के विषय में नहीं बता सकते इसलिए कौन मनुष्य जानता है जिस कारण यह सारा संसार उत्पन्न हुआ।

    इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न।
    यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ॥7॥

अन्वय- इयं विसृष्टिः यतः आबभूव यदि वा दधे यदि वा न। अस्य यः अध्यक्ष परमे व्यामन् अंग सा वेद यदि न वेद।

अर्थ- यह विविध प्रकार की सृष्टि जिस प्रकार के उपादान और निमित्त कारण से उत्पन्न हुयी इस का मुख्या कारण है ईश्वर के द्वारा इसे धारण करना। इसके अतिरिक्त अन्य कोई धारण नहीं कर सकता। इस सृष्टि का जो स्वामी ईश्वर है, अपने प्रकाश या आनंद स्वरुप में प्रतिष्ठित है। हे प्रिय श्रोताओं ! वह आनंद स्वरुप परमात्मा ही इस विषय को जानता है उस के अतिरिक्त (इस सृष्टि उत्पत्ति तत्व को) कोई नहीं जानता है।




Nasadiya Sukta with English translation

नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत् ।
किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद्गहनं गभीरम् ॥ १॥

Then even nothingness was not, nor existence, There was no air then, nor the heavens beyond it. What covered it? Where was it? In whose keeping? Was there then cosmic water, in depths unfathomed?

न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः ।
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किञ्चनास ॥२॥

Then there was neither death nor immortality nor was there then the torch of night and day. The One breathed windlessly and self-sustaining. There was that One then, and there was no other.

तम आसीत्तमसा गूहळमग्रे प्रकेतं सलिलं सर्वाऽइदम् ।
तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम् ॥३॥

At first there was only darkness wrapped in darkness. All this was only unillumined water. That One which came to be, enclosed in nothing, arose at last, born of the power of heat.

कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत् ।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ॥४॥

In the beginning desire descended on it - that was the primal seed, born of the mind. The sages who have searched their hearts with wisdom know that which is kin to that which is not.

तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासीदुपरि स्विदासीत् ।
रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात् ॥५॥

And they have stretched their cord across the void, and know what was above, and what below. Seminal powers made fertile mighty forces. Below was strength, and over it was impulse.

को अद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः ।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव ॥६॥

But, after all, who knows, and who can say Whence it all came, and how creation happened? the gods themselves are later than creation, so who knows truly whence it has arisen?

इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न ।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ॥७॥



Whence all creation had its origin, he, whether he fashioned it or whether he did not, he, who surveys it all from highest heaven, he knows - or maybe even he does not know.

मंत्रपुष्पांजली अर्थ..

मंत्रपुष्पांजली कुबेरला उद्देशून आहे.

ॐ यज्ञेन यज्ञमयजंत देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमान: सचंत यत्र पूर्वे साध्या:संति देवा: ।।
ॐ राजाधिराजाय प्रसह्यसाहिने । नमो वयं वैश्रवणाय कुर्महे ।
स मे कामान् कामकामाय मह्यंकामेश्वरो वैश्रवणो ददातु ।
कुबेराय वैश्रवणाय महाराजाय नम: ।
ॐ स्वस्ति साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं
वैराज्यं पारमेष्ठ्यं राज्यंमहाराज्यमाधिपत्यमयं
समंतपर्याईस्यात् सार्वभौम: सार्वायुष आंतादापरार्धात् ।
पृथिव्यैसमुद्रपर्यंताया एकराळिती । तदप्येषश्लोकोऽभिगीतो मरुत: परिवेष्टारो मरुत्तस्याऽवसन् गृहे ।
आविक्षितस्यकामप्रेर्विश्वेदेवा: सभासद'' इति ।
एकदंताय विध्महे वक्रतुण्डाय धीमहि ।तन्नोदंती प्रचोदयात् ।
मंत्रपुष्पांजली समर्पयामि ।।


मंत्रपुष्पांजली अर्थ..

देवांनी यज्ञ करून यज्ञपुरुषाची, यज्ञस्वरूपी परमेश्वराची पूजा केली. यज्ञाने पूजन करणे हा त्या काळी (त्रेतायुगात) प्रमुख धर्म, साधनामार्ग होता. जेथे पुरातन, अनादि असे उपास्यदेव आहेत असे देवलोक, साधना करणारे थोर महात्मे खरोखर प्राप्त करून घेतात. (यज्ञातील हविर्द्रव्ये ज्या देवतांप्रीत्यर्थ यज्ञ केला जात असे, त्या देवतांना पोहोचून त्या तृप्त होत असत व यज्ञ करणार्‍यांना इष्टफलाची प्राप्ती होत असे.)
राजाधिराज, सर्वशक्तिमान् अशा वैश्रवण ज्ञानी, ज्याने ज्ञान उत्तम प्रकारे श्रवण केले आहे अशा सर्व काही अनुकूल (प्रसह्य) घडवून आणणा-या राजाधिराज वैश्रवण कुबेराला आमचा नमस्कार असो . (कुबेराला वैश्रवण असेही नाव आहे. हा ब्रह्मदेवांचा पुत्र पुलस्त्य याचा मुलगा. त्याला ब्रह्मदेवानी अमरत्व दिले, तसेच धनाचा अधिपती व लोकपाल केले. त्याला शंकराशी सख्यत्व व यक्षांचे आधिपत्य आणि राजाधिराजपद दिले.) तो कामेश्वर कुबेर माझ्या सर्व कामना पूर्ण करो.
आमचे राज्य सर्वार्थाने कल्याणकारी असावे.आमचे साम्राज्य सर्व उपभोग्य वस्तूंनी परिपूर्ण असावे. येथे लोकराज्य असावे.आमचे राज्य आसक्ति,लोभ रहित असावे.अशा परमश्रेष्ठ महाराज्यावर आमची अधिसत्ता असावी.
आमचे राज्य क्षितिजाच्या सीमेपर्यंत सुरक्षित असावे.समुद्रापर्यंत पसरलेल्या पृथ्वीवर आमचे दीर्घायु राज्य असो. आमचे राज्य सृष्टीच्या अंतापर्यंत म्हणजे परार्धवर्ष पर्यंत सुरक्षित राहो.सर्वसामर्थ्यवान्, चक्रवर्ती राजा असलेले आमचे हे राज्य एकछत्री, सर्व ऐश्वर्याने युक्त, मोक्षप्रद, साधनेला पोषक, सिद्धीप्राप्त, सर्वश्रेष्ठ, सर्व विश्वाचे अधिपतीत्व असलेले महान, विशाल राज्य, विश्वाच्या अन्तापर्यंत, परार्ध (ब्रह्मदेवाची राहिलेली ५० वर्षे) संपेपर्यंत चिरकाल नांदो. आमचा राजा समुद्रवलयांकित पृथ्वीचा सम्राट असो.
या कारणास्तव अशा राजाच्या आणि राज्याच्या किर्तीस्तवना साठी हा श्लोक म्हटला आहे. अविक्षिताचा पुत्र, मरुताच्या राज्यसभेचे सर्व सभासद असलेल्या मरुत गणांनी परिवेष्टीत केलेले हे राज्य आम्हाला लाभो हीच कामना.

Monday, August 21, 2017

धबाबा लोटल्या धारा

गिरीचे मस्तकी गंगा। तेथुनी चालिली बळे ।
धबाबा लोटल्या धारा । धबाबा तोय आदळे ।।

गर्जतो मेघ तो सिंधू । ध्वनिकल्लोळ उठीला ।
कडय़ासी आदळे धारा । वात आवर्त होतसे ।।

तुषार उठती रेणू । दुसरे रज माजले ।
वात मिश्रीत ते रेणू । सीत मिश्रीत धुकटे ।।

कर्दमू निवडेना तो । मनासी साकडे पडे ।
विशाल लोटली धारा । ती खाली रम्य विवरे ।।




अशा एखाद्या तळ्याच्या काठी

अशा एखाद्या तळ्याच्या काठी बसून राहावे, मला वाटते
जिथे शांतता स्वतःच निवारा शोधीत थकून आली असते
जळाआतला हिरवा गाळ निळ्याशी मिळून असतो काही
गळून पडत असताना पान मुळी सळसळ करीत नाही

सावल्यांना भरवीत कापरे जलवलये उठवून देत
उगीच उसळी मारुन मासळी, मधूनच वर नसते येत
पंख वाळवीत बदकांचा थवा वाळूत विसावा घेत असतो
दूर कोपर्‍यात एक बगळा ध्यानभंग होऊ देत नसतो

हृदयावरची विचारांची धूळ हळूहळू जिथे निवळत जाते,
अशा एखाद्या तळ्याच्या काठी बसून राहावे, मला वाटते!

- अनिल

Monday, August 14, 2017

द्वारका

कृष्णाने गोकुळ द्वारकेस हलविले आणि द्वारका सोन्याची केली हे आपणास परिचित आहे. कृष्णाचे जन्मस्थान मथुरा. तो वाढला गोकुळात. मथुरा/गोकुळ हे यमुनेच्या काठी उत्तर भारतात. कृष्णाने कंसाला ठार मारले. कंस हा बलाढ्य मगध साम्राज्याचा सेनापती होता आणि यादवांच्या राज्याचा राजा होता. कंसाला मारल्याने कंसाचा सासरा मगध सम्राट जरासंध याने त्याच्यावर हल्ले सुरु केले. जयद्रथ  सिंधू प्रदेशाचा राजा होता. कंसानंतर तो मगधेचा सेनापती झाला. जरासंघ याने मथुरेवर हल्ले सुरु केले. यावेळी झालेल्या आठ युद्धात कृष्णाला प्रत्येक वेळी काही प्रदेश गमवावा लागला. त्यात यवन प्रदेशातून (वायव्य भारत) काल-यवन आपली बलाढ्य सेना घेऊन मथूरेवर चालून आला. त्याच वेळी जरासंघानेही हल्ल्याची तयारी केली. यामुळे कृष्णाने यादवांना मथुरेहून हलवून द्वारकेला आणले. (कालयवनाचा सामना कृष्णाने कसा केला हे ही युद्धशास्त्राच्या दृष्टीने रंजक आहे. पण ते विषयांतर होईल). द्वारकानगरी भव्य तटांनी वेढलेली होती आणि त्यात प्रवेश करण्यासाठी अनेक द्वारे होती. म्हणून अनेक द्वारांच्या या नगरीला द्वारका असे नाव मिळाले. मात्र संशोधनातून दिसते की द्वारकानागरी श्रीकृष्णाच्या आधी काही हजार वर्षे अस्तित्वात होती. श्रीकृष्णाने या नगरीचे 'सोन्याच्या' समृद्ध नगरीत रुपांतर केले.
द्वारका हे अरबी समुद्राकाठचे छोटे बेट होते. येथून त्याकाळच्या समृद्ध प्राचीन रोमन साम्राज्यांशी जलमार्गे व्यापार करणे सुलभ होते. भारतीयाना प्राचीन काळापासून नौकानायानाचे ज्ञान होते. मोहेंजोदारो काळातील लोथाल हे Dry Dock द्वारकेपासून जवळच होते. कृष्णाची मित्र साम्राज्ये येथून जवळच होती. त्यामुळे कृष्णाने येथे यादवांना वसविले. आता यादव दुधाचा व्यापार न करता परदेशांशी (प्राचीन रोमन साम्राज्ये) व्यापार करू लागले आणि अल्प काळातच द्वारका समृद्ध झाली...सोन्याची द्वारका म्हणून ओळखली जाऊ लागली. (त्या काळी समृद्ध नगरींना 'सोन्याची' म्हणून ओळखले जात होते. उदा. 'सोन्याची लंका'). कृष्ण हा शूर योद्धा, डावपेच आखण्यात प्रवीण होताच पण त्याने तो 'विकासपुरुष' असल्याचेही सिद्ध केले. झपाट्याने श्रीमंत झालेल्या यादवांमध्ये श्रीमंती दोषही तेवढ्याच वेगात शिरले. दारूच्या आहारी जाऊन त्यांनी स्वत:चा नाश ओढवून घेतला.
काळ पुढे सरकत होता. महाभारतातील महाविनाशानंतर भारतवर्ष कित्येक शतके मागे फेकले गेले. अज्ञानाच्या अंध:कारात बुडाले. प्राचीन ज्ञानसम्पदेकडे दुर्लक्ष झाले. प्राचीन ग्रंथांचा विपरीत अर्थ लावला जावू लागला. ज्ञान अनुभवातून- स्व-अनुभूतीतून शोधण्याऐवजी पुस्तकातून शोधण्याची परंपरा सुरु झाली. अंधश्रद्धांच्या कर्दमात भारतवर्ष रुतले.
जागतिक हवामानातही बदल घडत होते. समुद्राची पातळी वाढत होती. महाभारतापासून आजपर्यंत सुमारे दहा मीटरने समुद्राची पातळी वाढल्याचे आजचे शास्त्र सांगते. (गेल्या दहा हजार वर्षात समुद्राच्या पातळीतील वाढ सुमारे ६० मीटर्स आहे). अतिसमृद्ध द्वारका - सोन्याची द्वारका समुद्राने गिळली. पण येथील जनसमूहाच्या स्मृतीत द्वारकेची जागा बसली होती. म्हणूनच आजच्या द्वारकेला जाणारे यात्रिक या द्वारका बेटापाशी (बुडालेले द्वारका बेट समुद्रात आजच्या द्वारकेपासून साथ मैल दूर आहे) बोटीने जावून दक्षिणा वहात आहेत. द्वारकेच्या काठावर समुद्र नारायणाचे मंदिर आहे. यात्रिक समुद्रात जाऊन समुद्रनारायणाला दक्षिणा अर्पण करीत असत. या जागांवर अधिक लक्ष देण्याचे ठरविले गेले. समुद्राखाली जेथे काही बांधकामाचे अवशेष पाणबुड्यांना मिळाले त्या जागा निश्चित करण्यात आल्या.
१९६३ साली पुणे विद्यापीठाच्या एका संशोधनात द्वारका बेटाचे काही पुरावे मिळाले होते. पण त्यानंतर त्यावर फारसे संशोधन झाले नाही. काही वर्षांपूर्वी प्रा. एस. आर. राव यांनी परत यावर संशोधन सुरु केले. त्यांना महाभारतकालीन (ख्रिस्तपूर्व १५०० वर्षे) अनेक वस्तू, भांडी, बांगड्या प्रभास क्षेत्री मिळाल्या. मूळ द्वारका आजच्या द्वारकेपासून सुमारे ३० किलोमीटर दूर समुद्रात आहे. हे द्वारका बेट त्या काळी मुख्य भूमीला जोडलेले होते. द्वारका बेताला 'शंखोधारा' या नावानेही ओळखले जात होते.  येथे अनेक प्रकारचे शंख मिळत असत. या शंखांची आभूषणे बनत असत. या द्वारकेच्या बाजूने मोठमोठाल्या चिऱ्याच्या दगडांनी बांधलेली संरक्षक भिंत होती. ही भिंत काळाच्या ओघात जमिनीखाली गाडली गेली होती.  या सर्व गोष्टी प्रा रावांना आपल्या संशोधनात मिळाल्या.
पाण्याखाली केलेल्या संशोधनात पाणबुड्यांना तेथील बांधकामावर जमलेल्या समुद्री वनस्पतींचे जंगल हटवावे लागले. हे काम अत्यंत काळजीपूर्वक करावे लागले. अत्याधुनिक तंत्रज्ञानामुळे ते शक्य झाले. बांधकामात मोठाल्या दगडी कमानी मिळाल्या.
पाण्याखाली पाणबुड्यांच्या सहाय्याने सहाय्याने केलेल्या संशोधनात मातीची प्राचीन भांडी मिळाली. यात भोके असलेले मोहेंजोदारोच्या शेवटच्या काळात वापरले जाणारे भोके असलेले पात्रही (Perforated Jar) होते. काही भांड्यांवर मोहेंजोदारो काळातील लिपीत लिहिलेले आहे.
शोभा राज्याच्या शाल्वराजाने द्वारकेवर हल्ला केला. कृष्णाने असा प्रकार परत होऊ नये म्हणून काही उपाययोजना केल्या. त्यासाठी त्याने तीन प्राण्यांचे चित्र असलेली शंखांपासून बनविलेली मुद्रा प्रत्येक नागरिकाला दिली. ही मुद्रा जवळ बाळगणे आणि कधीही विचारणा केल्यास दाखविणे प्रत्येक नागरिकास बंधनकारक होते. या समुद्राखालील संशोधनात ही मुद्राही मिळाली. ही शंखापासून बनविलेली आहे. १८X२० मिलीमीटर आकाराची ही मुद्रा आहे. यावर बैल, एकश्रुंगी घोडा आणि बकरा या तीन प्राण्यांच्या तीन प्राण्यांच्या मुद्रा आहेत. अशाच मुद्रा बहारीन येथे मिळाल्या आहेत. (द्वाराकेतील नागरिक तेथे गेले असता त्यांनी या मुद्रा आपल्याबरोबर नेल्या असाव्यात).
द्वारकेजवळ मोठी भोके असलेले बोटींचे दगडी नांगर सापडले. असेच नांगर  सायप्रस आणि सिरीयाजवळ सापडले आहेत. लाकडाचे ओंडके यात खुपसून बोट समुद्रात नांगरली जात असे. सायप्रस आणि सिरीयाशी भारताचा व्यापार इ.स.पूर्व २००० वर्षांपासून चालत असल्याचे अनेक पुरावे मिळाले आहेत. द्वारका परदेशांशी व्यापार करूनच भरभराटीला आली होती.
द्वारकेत एक मोठाला नक्षीकाम केलेला दगडी खांब (Pillar) सापडला. एखाद्या महालाचा हा खांब असावा. या संशोधनात अनेक पितळी वस्तू सापडल्या. यात पितळी घंटांचा ही समावेश आहे. द्वारकेत सापडलेले एक काष्ठ शिल्प त्याचे carbon dating केल्यावर ख्रिस्त पूर्व साडेसात हजार वर्षे प्राचीन असल्याचे निष्पन्न झाले. हे carbon Dating भारतातील तसेच अमेरिकेतील प्रयोगशाळांत केले गेले. म्हणजेच Ice Age नंतर लगेचच भारतात शहरे वसविली गेली होती. या काळी फक्त भटक्या जमाती होत्या असा आजपर्यंत समज होता.
आजही येथील किनाऱ्यावर प्राचीन वस्तूंचे अवशेष वाहात येतात.
१९८७ मध्ये प्रथम भारतीय सामुद्री पुराणवस्तू संशोधन परिषद भरली होती यात देशोदेशींचे शास्त्रज्ञ सहभागी झाले होते. यात या द्वाराकेवरील प्रा. रावांच्या संशोधनाचे खूप कौतुक झाले.
महाभारत ही केवळ एक पौराणिक कथा नाही तर त्याला इतिहासाचा ही आधार आहे हेच यावरून स्पष्ट होते.
आज हे संशोधन काही अनाकलनीय कारणाने थांबविण्यात आले आहे. या प्रोजेक्टवर काम करण्यात शास्त्रज्ञांना आता रस नाही असे सांगण्यात येते. S R Rao यांच्यानंतर ज्या शास्त्रज्ञाकडे या प्रोजेक्टची सूत्रे आली तो अचानक गायब झाला. यात या संशोधकांना कोणी धमकाविले तर नाही ना?
शास्त्रज्ञ S R Rao यांनी या बुडालेल्या द्वारकेतील पुराणवस्तूंच्या जतनासाठी काही निधीची मागणी केली होती. ती पण मान्य झाली नाही. निश्चितपणे काही राजकारणी लोकांच्या हितसंबंधांना बाधा येणार असल्यानेच हे झाले असावे. सध्याचे सरकार यात लक्ष घालणार काय?

https://www.youtube.com/watch?v=NVIsjx5X3QM
https://www.youtube.com/watch?v=nQZFS9Hij0M

Saturday, May 20, 2017

12 ज्योतिर्लिंग

जानिए प्रमुख 12 ज्योतिर्लिंगों के बारे में ...

1 - सोमनाथ

सोमनाथ ज्योतिर्लिंग भारत का ही नहीं अपितु इस पृथ्वी का पहला ज्योतिर्लिंग माना जाता है। यह मंदिर गुजरात राज्य के सौराष्ट्र क्षेत्र में स्थित है। शिवपुराण के अनुसार जब चंद्रमा को दक्ष प्रजापति ने क्षय रोग होने का श्राप दिया था, तब चंद्रमा ने इसी स्थान पर तप कर इस श्राप से मुक्ति पाई थी। ऐसा भी कहा जाता है कि इस शिवलिंग की स्थापना स्वयं चंद्रदेव ने की थी। विदेशी आक्रमणों के कारण यह 17 बार नष्ट हो चुका है। हर बार यह बिगड़ता और बनता रहा है।

2- मल्लिकार्जुन

यह ज्योतिर्लिंग आन्ध्र प्रदेश में कृष्णा नदी के तट पर श्रीशैल नाम के पर्वत पर स्थित है। इस मंदिर का महत्व
भगवान शिव के कैलाश पर्वत के समान कहा गया है। अनेक धार्मिक शास्त्र इसके धार्मिक और पौराणिक महत्व की व्याख्या करते हैं। कहते हैं कि इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने मात्र से ही व्यक्ति को उसके सभी पापों से मुक्ति मिलती है।एक पौराणिक कथा के अनुसार जहां पर यह ज्योतिर्लिंग है, उस पर्वत पर आकर शिव का पूजन करने से व्यक्ति को अश्वमेध यज्ञ के समान पुण्य फल प्राप्त होते हैं।

3- महाकालेश्वर

यह ज्योतिर्लिंग मध्य प्रदेश की धार्मिक राजधानी कही जाने वाली उज्जैन नगरी में स्थित है। महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की विशेषता है कि ये एकमात्र दक्षिणमुखी ज्योतिर्लिंग है। यहां प्रतिदिन सुबह की जाने वाली भस्मारती विश्व भर में प्रसिद्ध है। महाकालेश्वर की पूजा विशेष रूप से आयु वृद्धि और आयु पर आए हुए संकट को टालने के लिए की जाती है। उज्जैन वासी मानते हैं कि भगवान महाकालेश्वर ही उनके राजा हैं और वे ही उज्जैन की रक्षा कर रहे हैं।

4- ओंकारेश्वर

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मध्य प्रदेश के प्रसिद्ध शहर इंदौर के समीप स्थित है। जिस स्थान पर यह ज्योतिर्लिंग स्थित है, उस स्थान पर नर्मदा नदी बहती है और पहाड़ी के चारों ओर नदी बहने से यहां ऊं का आकार बनता है। ऊं शब्द की उत्पति ब्रह्मा के मुख से हुई है। इसलिए किसी भी धार्मिक शास्त्र या वेदों का पाठ ऊं के साथ ही किया जाता है। यह ज्योतिर्लिंग औंकार अर्थात ऊं का आकार लिए हुए है, इस कारण इसे ओंकारेश्वर नाम से जाना जाता है।

5- केदारनाथ

केदारनाथ स्थित ज्योतिर्लिंग भी भगवान शिव के 12 प्रमुख ज्योतिर्लिंगों में आता है। यह उत्तराखंड में स्थित है। बाबा केदारनाथ का मंदिर बद्रीनाथ के मार्ग में स्थित है। केदारनाथ समुद्र तल से 3584 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। केदारनाथ का वर्णन स्कन्द पुराण एवं शिव पुराण में भी मिलता है। यह तीर्थ भगवान शिव को अत्यंत प्रिय है। जिस प्रकार कैलाश का महत्व है उसी प्रकार का महत्व शिव जी ने केदार क्षेत्र को भी दिया है।

6- भीमाशंकर

भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र के पूणे जिले में सह्याद्रि नामक पर्वत पर स्थित है। भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग को मोटेश्वर महादेव के नाम से भी जाना जाता है। इस मंदिर के विषय में मान्यता है कि जो भक्त श्रृद्धा से इस मंदिर के प्रतिदिन सुबह सूर्य निकलने के बाद दर्शन करता है, उसके सात जन्मों के पाप दूर हो जाते हैं तथा उसके लिए स्वर्ग के मार्ग खुल जाते हैं।

7- काशी विश्वनाथ

विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग भारत के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह उत्तर प्रदेश के काशी नामक स्थान पर स्थित है। काशी सभी धर्म स्थलों में सबसे अधिक महत्व रखती है। इसलिए सभी धर्म स्थलों में काशी का अत्यधिक महत्व कहा गया है। इस स्थान की मान्यता है, कि प्रलय आने पर भी यह स्थान बना रहेगा। इसकी रक्षा के लिए भगवान शिव इस स्थान को अपने त्रिशूल पर धारण कर लेंगे और प्रलय के टल जाने पर काशी को उसके स्थान पर पुन: रख देंगे।

8- त्र्यंबकेश्वर

यह ज्योतिर्लिंग गोदावरी नदी के करीब महाराष्ट्र राज्य के नासिक जिले में स्थित है। इस ज्योतिर्लिंग के सबसे अधिक निकट ब्रह्मागिरि नाम का पर्वत है। इसी पर्वत से गोदावरी नदी शुरूहोती है। भगवान शिव का एक नाम त्र्यंबकेश्वर भी है। कहा जाता है कि भगवान शिव को गौतम ऋषि और गोदावरी नदी के आग्रह पर यहां ज्योतिर्लिंग रूप में रहना पड़ा।

9- वैद्यनाथ

श्री वैद्यनाथ शिवलिंग का समस्त ज्योतिर्लिंगों की गणना में नौवां स्थान बताया गया है। भगवान श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का मन्दिर जिस स्थान पर अवस्थित है, उसे वैद्यनाथ धाम कहा जाता है। यह स्थान झारखण्ड प्रान्त, पूर्व में बिहार प्रान्त के संथाल परगना के दुमका नामक जनपद में पड़ता है।

10-नागेश्वर ज्योतिर्लिंग

यह ज्योतिर्लिंग गुजरात के बाहरी क्षेत्र में द्वारिका स्थान में स्थित है। धर्म शास्त्रों में भगवान शिव नागों के देवता है और नागेश्वर का पूर्ण अर्थ नागों का ईश्वर है। भगवान शिव का एक अन्य नाम नागेश्वर भी है। द्वारका पुरी से भी नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की दूरी 17 मील की है। इस ज्योतिर्लिंग की महिमा में कहा गया है कि जो व्यक्ति पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ यहां दर्शनों के लिए आता है उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं।

11- रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग

यह ज्योतिर्लिंग तमिलनाडु राज्य के रामनाथ पुरं नामक स्थान में स्थित है। भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक होने के साथ-साथ यह स्थान हिंदुओं के चार धामों में से एक भी है। इस ज्योतिर्लिंग के विषय में यह मान्यता है, कि इसकी स्थापना स्वयं भगवान श्रीराम ने की थी। भगवान राम के द्वारा स्थापित होने के कारण ही इस ज्योतिर्लिंग को भगवान राम का नाम रामेश्वरम दिया गया है।

12-घृष्णेश्वर मन्दिर

घृष्णेश्वर महादेव का प्रसिद्ध मंदिर महाराष्ट्र के संभाजीनगर के समीप दौलताबाद के पास स्थित है। इसे घृसणेश्वर या घुश्मेश्वर के नाम से भी जाना जाता है। दूर-दूर से लोग यहां दर्शन के लिए आते हैं और आत्मिक शांति प्राप्त करते हैं। भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से यह अंतिम ज्योतिर्लिंग है। बौद्ध भिक्षुओं द्वारा निर्मित एलोरा की प्रसिद्ध गुफाएं इस मंदिर के समीप स्थित हैं। यहीं पर श्री एकनाथजी गुरु व श्री जनार्दन महाराज की समाधि भी है।


जुन्नर तालुक्यातील लेणी

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जुन्नर तालुक्यातील 11 लेणी समुह एकूण 260 लेणी

लेण्यांचा ऐतिहासिक वारसा लाभलेला तालुका म्हणजे जुन्नर तालुका. जगात सर्वात जास्त लेणी असलेला तालुक्यात प्रथम क्रमांक लागतो तो जुन्नर तालुक्याचा. महाराष्ट्रात विविध ठिकाणी अनेक प्रकारच्या कोरीव लेण्या पहावयास मिळतात. अशा लेण्यांची बांधणी अशा ठराविक ठिकाणीच का केली गेली ? असे प्रश्न नेहमीच विचाराधीन असल्याचे समजते. त्याला कारणही तसेच आहे ते म्हणजे तेथील हजारो वर्षे टिकाऊ असलेला खडक.म्हणूनच जवळ जवळ सगळ्याच लेण्या समकालीन असून त्या आज रोजी 2200 वर्षाच्या झालेल्या असून सुद्धा आपले आयुर्मान टिकवून ठेवण्यात यशस्वी झाल्या आहेत.

जुन्नर तालुक्यात एकूण 11 समुहात वेगवेगळ्या ठिकाणी लेणी कोरल्या गेलेल्या असून त्यांची एकूण संख्या 260 एवढी आहे. यामध्ये बौद्ध, जैन, शिलाहार राजा झंज, सातवाहन कालीन निर्मित लेण्या वेगवेगळ्या शिलालेखांच्या माध्यमातून वाचकांपर्यंत आज पोहचत आहेत.

लेण्या कोरताना वापरण्यात आलेली औजारे कोणती असावीत, त्यांचा वापर एवढा सुक्ष्म पध्दतीने कसा केला गेला असावा, येथील खडकच लेणी कोरण्यायोग्य का आहेत, हा अंदाज कोणत्या मार्गाने वर्तविला गेला असावा व हा खडक हजारो वर्षेच का टिकाऊ असेल अशा अनेक प्रश्नांच्या उत्तराचा शोध या वैज्ञानिक यूगात अद्याप लागलेला वाचावयास मिळत नाही. आजच्या आधुनिक युगात वेगवेगळ्या यंत्राच्या साह्याने हे सर्व करने खुप सोपे आहे. परंतु त्या काळात हे केल गेल असाव ? शेकडो ऊंचीचे मनोरे अनेक टनी वजनाच्या तोडीत कुठलेही क्रेन न वापरता बांधले गेले ते कसे? याला एकच उत्तर देता येईल पुर्वी प्रत्येक मनुष्य बुध्दी, युक्ती आणि शक्तीच्या त्रिवेणी संगमाचा योग्य वापर करून मनुष्य एकोपातुन बदल घडवून आणण्यासाठी खुपच प्रयत्नशील असे. याच प्रयत्नातुन त्यांनी घडवलेला इतिहास आजपण त्यांच्या कलाकृतीच्या माध्यमातून अजरामर असलेला आपण पाहत आहोत व ते पाहत असताना आश्चर्य व्यक्त करत आहोत.

अलीकडच्या सन 1818 च्या काळात याच लेण्यांचे वास्तव्याचे विद्रुपीकरण करण्यासाठी इंग्रज राणीने अक्षरशः जी.आर काढले, लेणी व किल्ल्यांची सुंदरता मिटवण्याचा खोडसाळ प्रयत्न केला गेला. आज ते पाहत असताना राग अनावर होत आहे.

जुन्नर तालुक्यातील असलेले अकरा लेणी समुह पहावयास आपणाकडे कमीत कमी पाच दिवस वेळ असने
गरजेचे आहे. लेणी पाहण्याची सुरूवात आपण कोठून व कशी करावी की ज्या योगे आपल्या वेळेची बचत जास्त होईल व तो वेळ आपणास लेणी व जुन्नरला लाभलेला निसर्ग खजिना पाहण्यास उपयुक्त ठरेल. जवळ जवळ सर्व लेणी पाहताना आपल्याला जेवन, पाणी सोबत ठेवणे गरजेचे आहे. चला मग वळुयात का लेणी समुहाकडे?

1) अंबा अंबिका लेणी ( खोरे वस्ती )

जुन्नर शहराच्या जवळच 2.5 कि.मी अंतरावर उत्तरेस असलेल्या डोंगर रांगामध्ये 1.5 कि.मी अंतर विस्तार असलेल्या ही लेणी तिन समुहात पहावयास मिळतात. जाण्याचा मार्ग खोरे वस्ती मधुन दक्षिणेस 1 कि.मी अंतरावरच आहे. या लेणी जैनतिर्थनकार यांच्या कालखंडातील असुन तीनही लेणी समुह सुंदर अशा कोरीव कलाकृतीत पहावयास मिळतात. सर्व प्रथम दक्षिणेकडील लेणी समुह पाहुन नंतर जुन्नर शहराच्या दिशेला गेलेल्या पाऊलवाटेने चालत राहिले की याच पाऊल वाटेने दोन्ही समुह पहावयास मिळतात. या लेणी पाहण्यासाठी साधारणतः 3 तास लागतात.

2) किल्ले शिवनेरी लेणी ( जुन्नर )

किल्ले शिवनेरी तसा आपल्या परीचयाचा आहेच परंतु संपूर्ण किल्ला दर्शन घ्यायचे झालेच तर दोन दिवस लागतात. किल्यावर असलेल्या लेणी या पाच समुहात असून या बौद्ध कालीन आहेत. येथेच 2200 वर्षापुर्वी केलेली रंगाची कलाकृती कडेलोट जवळ असलेल्या लेणी मध्ये पहावयास मिळते.

किल्ले शिवनेरीच्या मध्यखडक सर्कल भागात पुर्वेकडून शिवाई देवी, साखळदंड, व कडेलोट कडे या भागात तीन लेणी समूह असून पश्चिमेस दोन लेणी समूह आहेत. त्यातील एक लेणी हत्ती दरवाजाच्या उत्तरेस अगदी शंभर मीटर अंतरावरच आहे. शिवाई देवी मंदिरापाशी असलेल्या लेण्यांपैकी एका शेवटच्या लेणी मध्ये माता शिवाई देवीचे मुळ वास्तव्य होते. परंतु पेशवाई कालखंडात आज असलेले शिवाईदेवी मंदिर उभारण्यात आले.

किल्ले शिवनेरीला लाभलेला संपूर्ण लेणी संग्रह अनुभवन्यासाठी आपणाकडे दिड दिवस तरी हवा. पायरी मार्गाने शिवाईदेवी लेणी व हत्ती दरवाजवळच्या लेणी पाहता येतात. संपूर्ण किल्ला चढून शिवकुंजापाशी आलात की शेजारीच पुर्वेकडून एक पाऊलवाट साखळदंडाकडे जाते त्याच वाटेने खाली उतरावे व तेथील लेणी पहावी. ती लेणी पाहुन झाली की तसेच कडेलोट पायथ्यकडे गेलेल्या पाऊलवाटेने चालत रहावे व तेथील लेणी पहावीत येथील लेण्यांमध्ये केलेली रंगरंगोटी 2200 वर्षापुर्वीच्या रंगाची जादु दाखवून देतात. या लेण्या पाहून परतीला लागावे व जुन्नर शहराच्या पश्चिमेस गेलेल्या रस्त्याने वरसुबाई माता मंदिर पासुन कडेलोट पायथ्यकडे गेलेल्या पाऊलवाटेने चालत चालत कडेलोट चा मध्य गाठावा. येथुनच उजव्या हाताला बुजलेली पाऊलवाट दिसते. त्या बुजलेल्या वाटेचा मार्ग काढत काढत पश्चिम लेणी समूह पहावा. हा मार्ग खुपच अवघड आहे. येथे स्वसंरक्षण ची काळजी घेणे खुप गरजेचे आहे.तेथील लेणी पाहावीत व पुन्हा परतीच्या मार्गने वरसुबाई माता मंदिर पासुन पश्चिमेस गेलेल्या कच्या वाटेने 2.5 कि.मी अंतरावर असलेल्या तुळजाभवानी लेणी समूहापाशी पोहचावे.

3) तुळजाभवानी लेणी ( पाडळी )

तुळजाभवानी लेणी अतिशय कमी डोंगर चढाई करून व थोड्या वेळातच अनुभवता येतात. येथील निसर्ग खुपच सुंदर असून समोरच किल्ले शिवनेरीचेरूप दर्शन घेता येते. लेणी दर्शन करून किल्ले चावंडकडे प्रस्थान करावे.

4) चावंड लेणी ( चावंड गाव )

चढाई साठी खुपच अवघड अशी या चावंड किल्ल्याची ओळख होती. परंतु आज या किल्ल्याची भटकंती अगदी वृद्ध पण करतात. कारण किल्ले संवर्धक शिवाजी ट्रेल व वनविभाग जुन्नर यांच्या वतीने किल्यावर सूंदर असे रेलिंगचे काम करण्यात आले आहे. त्यामुळे भिती विसरून किल्ला चढून मध्यवर्ती असलेल्या पुष्करणी पाशी गेलात की उत्तरेस गेलेली पाऊलवाट सप्त मातृका पाण्याच्या टाक्या आणि नंतर पुढे लेणी समुहाकडे जाते. या लेण्या तत्कालीन व उपलब्धत खडक पहाता कोरलेल्या आहेत. त्या पहाव्यात व परतीच्या प्रवासाला लागावे व नाणेघाट मार्गे निघावे.

5) नाणेघाट लेणी ( घाटघर )

नाणेघाट येथील लेण्यांमध्ये जाण्यासाठी 100 मीटर उतरून खाली गेलात की डाव्या हाताला आपणास या लेण्यांचे दर्शन घडते. या लेणी मध्ये कोरलेली ब्राम्ही लिपीतील शिलालेख राणी नागणिकेच्या कुटुंबाची व पिता राजा सातवाहन यांच्या दानधर्माची ओळख करून देतो. याच लेखाच्या पुराव्यानेच मराठी भाषेला अभिजात भाषेचा दर्जा प्राप्त करून दिला व झिरो अंकाच्या शोधाचा सर्वात मोठा पुरावा पण याच लेखात मिळतो. तसेच राणी नागणिका, पती, मुल व पिता यांच्या मुर्त्या कोरलेल्या होत्या आज फक्त त्या खुना दिसत असून वर नामोल्लेख शिलालेखाद्वारे समजतो. या लेणी पाहण्यासाठी खुप कमी वेळ लागतो. येथील निसर्ग न्याहाळतचपुढे सरकत रहावे व येथे मिळेल त्या ठिकाणी रात्री मुक्काम करावा. सकाळी लवकर उठून किल्ले जिवधनच्या कल्याण दरवाजा पाऊलवाट मार्गाने चढाईस सुरूवात करावी.

6) किल्ले जिवधन लेणी.

किल्ले जिवधनची चढाई करून वर आलात की तेथुनच किल्यावर जाण्यासाठी किल्याच्या मध्यभागी असलेली एक पाऊलवाट दृष्टीस पडते या पाऊलवाटेने किल्याच्या मध्यशिखरावर पोहचलात कि तेथून पुन्हा पुर्वेकडे खाली 200 मी उतरावे तेथेच डावीकडे आपणास ही धान्य कोठार म्हणुन लेणी दिसतात. तसेच पुढे खाली उतरून जुन्नर दरवाजा जवळील लेणी उजवीकडे असून या लेणीने पाण्याच्या टाकीचे रूप धारण केलेले आढळून येते. साधारण जिवधन किल्ला लेणी पाहण्यासाठी सुरूवातीपासून पुन्हा त्याच ठिकाणी पोहचण्याकरीता 5/6 तास लागतात. पर्यटक बंधूंना विनंती आहे की हे करत असताना आपणाकडे चढाई करीता रोप व पाणी असने गरजेचे आहे. आपला प्रवास परतीला लागावे. पुढील वाटचाल निमगिरी किल्ल्याकडे करावी.

7) निमगिरी लेणी ( निमगिरी गाव )

निमगिरी गावात गाडी पार्क करून तेथील स्थानिकांच्या मदतीने किल्ल्यावर जाण्यासाठी वाटेचा वापर करावा. किल्यावर पोहचलात कि उजवीकडे गेलेल्या पाऊलवाटेने पुर्वेकडे चालत रहावे. हीच पाऊलवाट आपणास प्रथम गजांत लक्ष्मीचे दर्शन घडवते. व येथुनच ही वाट उत्तरेस वळुन पडझड झालेल्या लेण्यांपर्यंत पोहचविते. लेणी समुह पाहुन झाला की पुन्हा परतीचा मार्ग धरावा व किल्ले हडसर साठी पेठेच्या वाडीत आपला प्रवास थांबवावा. येथील रहिवासी बांधवांच्या सांगितलेल्या मार्गाने किल्ले हडसर वर पोहचावे.

8) किल्ले हडसर ( लेणी )

बहुधा येथील लेणी पर्यटकांशी लपवाछपवीचा खेळ खेळताना ऐकवयास मिळतो. कारण हा लेणी समुह सहजा सहजी दिसून येत नाही. त्यामुळे अनेक पर्यटक ही लेणी न पाहताच माघारी येतात.

हा लेणी समुह पहावयाचा झाला तर किल्लायावर पोहचल्यास वर एक मोठा तलाव लागतो त्या तलावाच्या उत्तरेकडील पश्चिम कोपर्‍याच्या बरोबर 30 ते 40 मीटर उतारावरील अंतरावर हा लेणी समुह सपाट भाग असल्याने लपलेला पहावयास मिळतो. या लेण्यांचे अस्तित्वात जसेच्या तसे टिकून आहे. खुपच सुंदर असा हा देखावा आहे. लेणी दर्शन घ्यावे व आपला मुक्काम लेण्याद्री विनायक गिरीजात्मकाच्या चरणी करावा.

9)लेण्याद्री विनायक गिरीजात्मक लेणी ( लेण्याद्री )

सकाळच्या प्रहरी लवकरच उठून श्री. गिरीजात्मकाचे दर्शन घेऊन येथील लेणी भटकंती करावी येथे सर्वाधिक लेण्या असल्याची नोंद आहे. येथील लेणी पाहून याच डोंगर रांगेच्या उत्तरेस असलेल्या डोंगर रांगेकडे विचारना करून सुलेमान लेणी समुहाकडे हळुहळु पाऊलवाटेने निघावे.

10) सुलेमान लेणी ( लेण्याद्री )

या लेणी समुहाचे कोरीव काम अतिशय सुरेख असून या लेण्यांची देखरेख एक मुस्लिम वृद्ध अखेरच्या स्वासापर्यंत येथे करीत असल्याने त्यांचे नाव या लेण्यांनी अजरामर केले. तशा या लेण्या कालिणच असल्याचे उल्लेख मिळतात. या लेण्या प्रसिद्धीपासून खुपच वंचित राहीलेल्या असुन यांची सुंदरता खुपच कमी पर्यटकांनी अनुभवलेली आहे. येथील सुदरतेचे रंगरूप न्याहाळतच आपल्या निवारास्थानी पोहचुन गणेश खिंडीतून मढ, मढ खिंड व पुढे खिरेश्वर लेणी पाहण्यासाठी माळशेज घाटाकडील पिंपळगाव जोगा धरणाच्या सहा कि.मी पसरलेल्या भिंतीवरून निसर्ग रूप दर्शन घेत भिंत संपते तेथेच डावीकडे वळून खाली 50 मीटर अंतरावर गाडी उभी करून थांबावे.

11) खिरेश्वर लेणी

आपण उभे असलेल्या ठिकाणाहून उत्तरेस तोंड केले कि आपणास जवळच 100 मीटर अंतरावरच या लेणी पाहण्यासाठी मिळतात. येथे हा एकच लेणी समुह असून आपला जुन्नर तालुका लेणी समूह प्रवास येथेच थांबतो.

मित्रांनो वरील संपूर्ण माहिती ही प्रत्यक्ष अनुभव घेऊनच मी आपणापुढे मांडण्याचा प्रयत्न फक्त आपल्या सुविधांच्या माध्यमासाठी केला आहे. कारण आपणास तालुक्यात संपूर्ण लेणी समूह दाखवणारा मार्गदर्शक उपलब्ध होत नाही. त्यामुळे आपणास अनेक अडचणींना सामोरे जावे लागते व पर्यायाने आपला अमूल्य वेळ व पैसा खर्च होतो आणि आपल्या आशांची निराशा होते. आपण जुन्नर शहरात आलात तर मला संपर्क करून मार्गदर्शन घेतले तरीही चालेल मी सदैव आपल्या सेवेसाठी तत्पर असेल ते ही विनामूल्य. कारण माझ्या मते हीच माझी शिव सेवा असेल.

छायाचित्र / लेखन - श्री.खरमाळे रमेश

( माजी सैनिक खोडद )

निसर्ग रम्य जुन्नर तालुका

Tuesday, May 16, 2017

रिस्क

दारु पिताना मी कधीच रिस्क घेत नाही
मी संध्याकाळी घरी येतो तेव्हा बायको स्वयंपाक करत असते,
शेल्फमधील भांड्यांचा आवाज बाहेर येत असतो,
... मी चोरपावलाने घरात येतो,
माझ्या काळ्या कपाटातून बाटली काढतो,
गांधीजी फोटोतून बघत असतात,
या कानाचा त्या कानाला पत्ता लागत नाही,
कारण मी कधीच रिस्क घेत नाही .... ||१||

वापरात नसलेल्या मोरीतल्या फळीवरुन मी ग्लास काढतो,
पटकन एक पेग भरुन आस्वाद घेतो,
ग्लास धुवून पुन्हा फळीवर ठेवतो,
अर्थात बाटलीही काळ्या कपाटात ठेवतो,
गांधीजी मंद हसत असतात,
स्वयंपाकघरात डोकावून बघतो,
बायको कणीकच मळत असते,
तरी या कानाचा त्या कानाला पत्ता लागत नाही,
कारण मी कधीच रिस्क घेत नाही .... ||२||

मी : जाधवांच्या मुलीच्या लग्नाचं जमलं का गं?
ती : छे! दानत असेल तर मिळेल ना चांगलं स्थळ!
मी परत बाहेर येतो, काळ्या कपाटाच्या दाराचा आवाज होतो,
बाटली मात्र मी हळूच काढतो,
वापरात नसलेल्या मोरीतल्या फळीवरुन मी ग्लास काढतो,
पटकन एक पेग भरुन आस्वाद घेतो, बाटली धुवून मोरीत ठेवतो,
काळा ग्लास पण कपाटात ठेवतो,
तरी या कानाचा त्या कानाला पत्ता लागत नाही,
कारण मी कधीच रिस्क घेत नाही .... ||३||

मी : अर्थात जाधवांच्या मुलीचं अजून काही लग्नाचं वय झालं नाही..
ती : नाही काऽऽय! अठ्ठावीस वर्षांची घोडी झालीये म्हणे..
मी : (आठवून जीभ चावतो) अच्छा अच्छा ...
मी पुन्हा काळ्या कपाटातून कणीक काढतो,
मात्र कपाटाची जागा आपोआप बदललेली असते,
फळीवरुन बाटली काढून पटकन मोरीत एक पेग मारतो,
गांधीजी मोठ्ठ्याने हसतात,
फळी कणकेवर ठेवून, गांधीजीचा फोटो धुवून मी काळ्या कपाटात ठेवतो,
बायको गॅसवर मोरीच ठेवत असते,
या बाटलीचा त्या बाटलीला पत्ता लागत नाही,
कारण मी कधीच रिस्क घेत नाही .... ||४||

मी : (चिडून) जाधवांना घोडा म्हणतेस? पुन्हा बोललीस तर जीभच कापून टाकीन!
ती : उगीच कटकट करु नका... बाहेर जाऊन गप पडा...
मी कणकेमधून बाटली काढतो, काळ्या कपाटात जाऊन एक पेग मळतो,
मोरी धुवून फळीवर ठेवतो,
बायको माझ्याकडे बघून हसत असते,
गांधीजी चा स्वयंपाक चालूच असतो,
पण ह्या जाधवांचा त्या जाधवाना पत्ता लागत नाही,
कारण मी कधीच रिस्क घेत नाही .... ||५||

मी: (हसत हसत) जाधवांनी घोडीशी लग्न ठरवलं आहे म्हणे!
ती: (ओरडून) तोंडावर पाणी मारा!!
मी परत स्वयंपाकघरात जातो, हळूच फळीवर बसतो,
गॅसही फळीवरच असतो..
बाहेरच्या खोलीतून बाटल्यांचा आवाज येतो,
मी डोकावून बघतो ... बायको मोरीत दारूचा आस्वाद घेत असते,
ह्या घोडीचा त्या घोडीला पत्ता लागत नाही,
अर्थात गांधीजी कधीच रिस्क घेत नाहीत..
जाधवांचा स्वयंपाक होईपर्यंत्...मी फोटोतून बायकोकडे बघून हसत असतो...
कारण मी कधीच रिस्क घेत नाही...||६||😄😄😄

द.मा. मिरासदार

Saturday, April 8, 2017

*नाथपंथीयांची वेशभूषा*


1) भस्म - भस्माला विभूती असेही म्हणतात. काही ठीकाणी क्षार असाही उल्लेख आढळतो. भस्म हे योग्याच्या वेशभूषेचे एक आवश्यक अंग आहे. ते काही असले तरी नाथपंथीयाने भस्म हे लावले पाहीजे. सर्व देहाचे अखेर भस्मच होणार आहे. यासाठी देहावरील प्रेम कमी करून आत्माकडे मन केंद्रित करा असा संदेशच जणू काही भस्म देत आहे. शिवाय भस्मधारणेमुळे त्या त्या ठिकाणची शक्तिकेंद्रेही जागृत होतात. भस्माचे असे महात्म्य असल्यानेच नाथपंथीयांनी त्याचा अगत्याने स्वीकार केल्याचे दिसते.
2) रूद्राक्ष - हे एका झाडाचे फळ असून त्यास रूद्र अक्ष म्हणतात. शिवाचा नेत्र असा शब्दाचा अर्थ आहे. जपासाठी रूद्राक्ष माळ वापरतात. लक्ष्मी स्थिरावणे, शस्त्राघात न होणे अशा काही हेतूंसाठीही रूद्राक्षांच्या माळा विशेष करून वापरल्या जातात. शिवाय रूद्राक्षांचे औषधी गुणधर्मही अनेक आहेत.
3) मुद्रा - मुद्रा हे नाथपंथातील एक महत्वाचे साधन आहे. ही मुद्रा कानाच्या पाळीस छिद्र पाडून त्यात घातली जाते. ही बहूदा वसंत पंचमीच्या शुभ दिवशीच धारण केली जाते. अशा मुद्राधारक योग्यांनाच कानफाटे योगी असेही म्हणतात.कारण ते कानात छिद्र पाडून ती धारण केलेली असते.
4) कंथा - कंथा हे भगव्या रंगाचे वस्त्र. यालाच गोधडी अथवा गुदरी असेही नाव आहे, आपल्या वाकळेसारखे चिंध्यांचे हे बनविलेले असते.
5) मेखला - सूमारे 22 ते 27 हात लांबीची ही लोकरीची बारीक दोरखंडासारखी दोरी असून, नाथ योगी ही कमरेपासून छातीपर्यंत विशिष्ट पद्धतीने गुंडाळतात. ही कटिबंधिनी मोळ्याच्या दोरीची करतात. कधी ही मेंढीच्या लोकरीचीही असते.मेखला दुहेरी पदरात असून तिच्या शेवटच्या टोकाला घुंगरू लावलेले असते.
6)हस्तभूषण मेखली - बारीक सुतळीएवढ्या जाडीची ही लोकरीची दोरी असून ती मनगटावर बांधतात. चार फुटांच्या या मेखलीवर रूद्रमाळ बांधलेली असते.
7) शैली - ही सुद्धा लोकरीची असून दुपदरी शैली जानव्यासारखी घातली जाते. शैलीच्या टोकाला लोकरीचा गोंडा असतो.
8) शृंगी - जानव्याच्या शेवटी अडकवलेली हरणाच्या शिंगाची बनवलेली ही एक प्रकारची शिट्टीच होय. शृंगी बांधलेले जानवे ''शिंगीनाथ जानवे'' म्हणून ओळखले जाते. शृंगीची वा शिंगीची लांबी साधारणपणे एक इंच असते. भिक्षेचा स्वीकार केला , की शिंगी वाजविण्याचा प्रघात आहे.
9) पुंगी - ही सुद्धा हरणाच्या शिंगाची बनविलेली असते. साधु दारासमोर भिक्षेसाठी आला, की पुंगी वाजवितो. पुंगी शृंगीपेक्षा बरीच मोठी म्हणजे 7 ते 8 इंच लांबीची असते पुंगी डाव्या खांद्यात अडकवून ठेवलेली असते.
10) जानवे - नाथपंथीयांचे जानवे हा एक विशेष प्रकार आहे. ते लोकरीच्या पाच -सात पदरांचे असून त्यात शंखाची चकती अडकवलेली असते चकतिच्या छिद्रात तांब्याच्या तारेने एक रूद्राक्ष बसविलेला असतो.त्याच्या खालीच शृंगी अडकवलेली असते. हा गोफ म्हणजेच नाथपंथी जानवे होय.
11) दंडा - दिड हात लांबीची ही एक काठी असते.हीस गोरक्षनाथ दंडा असे नांव आहे. नाथपंथी साधूच्या हातात ती असते.
12) त्रिशूळ - साधनेत विशेष अधिकार प्राप्त झाला, त्रिशूळ वापरतात.नवनाथश्रेष्ठी त्रिशूळधारी होते सामरस्यसिद्धी ज्यांनी प्राप्त केली ते केवळ त्रिशूळधारी होत.
13) चिमटा - अग्निदीक्षा घेतलेला साधक चिमटा बाळगतो. याची लांबी साधरणतः 27, 32, 54, इंच अशी असते. चिमट्याच्या टोकाला गोल कडे असते.त्यात पुन्हा नऊ लहान कड्या असतात. नाथपंथीयांची चाल या विशिष्ट नादावर व धुंदीत असते. अग्निचे उपासक नाथपंथी धुनी सारखी करण्यासाठी चिमट्याचा उपयोग करतात.
14) शंख - शंखास फार पुरातन काळापासून महत्व आहे. भगवान विष्णूंच्या हातातील शंख हेच दर्शवितो. भिक्षेच्या अथवा शिवाच्या दर्शनाच्या वेळी नाथपंथीय साधू शंख वाजवितात. शंखनाद हा ओंकाराचा प्रतिक मानला आहे.
15) खापडी (खापरी) - नाथपंथी साधू फुटक्या मडक्याच्या तुकड्यावर भिक्षा घेतात. हा तुकडा म्हणजेच खापडी किंवा खापरी. कधी खापरी नारळाच्या कवटीची अथवा कांशाची बनवितात.
16) अधारी - लाकडी दांडक्याला खालीवर पाटासारख्या फळ्या बसवून हे एक आसनपीठ तयार केलेले असते. कोठेही बसण्यासाठी योगी याचा उपयोग करतात.
17) किंगारी - हे एक सारंगीसारखे वाद्य असून भिक्षेच्या वेळी नाथपंथी याच्यावर नवनाथांची गाणी म्हणतात.
18) धंधारी - हे एक लोखंडी वा लाकडी पटट्यांचे चक्र असून त्याच्या छीद्रातून मालाकार असा मंत्रयुक्त दोरा ओवलेला असतो. याचा गुंता सोडविणे अतिशय अवघड असल्याने त्याला " गोरखधंधा " असेही नांव आहे. गुरूकृपेने हा गुंता सुटला तर संसारचक्रातून सुटका होईल अशी कल्पना आहे.
19) कर्णकुंडले - जो कानफाट्या नावाचा संबंध नाथपंथाशी आहे. तो कानांस छिद्रे पाडून त्यात कुंडले अडकवितात. कुंडल धातुचे किंवा हरणाच्या शिंगाचे किंवा सुवर्ण गुंफित असते.

Sunday, April 2, 2017

आता मला जाउ द्या

मी उद्या असणार नाही
असेल कोणी दूसरे
मित्रहो सदैव राहो
चेहरे तुमचे हासरे

झाले असेल चांगले
किंवा काही वाईटही
मी माझे काम केले
नेहमीच असतो राईट मी

माना अथवा नका मानु
तुमची माझी नाळ आहे
भले होओ , बुरे होओ
मी फक्त " काळ " आहे

उपकारही नका मानु
आणि दोषही देऊ नका
निरोप माझा घेताना
गेट पर्यन्त ही येऊ नका

उगवत्याला " नमस्कार "
हीच रीत येथली
विसरु नका 'आज पर्यंत'
साथ होती आपली

शिव्या ,शाप,लोभ,माया
यातले नको काही
मी माझे काम केले
बाकी दूसरे काही नाही

निघताना " पुन्हा भेटु "
असे मी म्हणनार नाही
" वचन " हे कसे देऊ
जे मी पाळणार नाही

मी कोण ? सांगतो
" शुभ आशीष " देऊ द्या
" सरणारे वर्ष " मी
आता मला जाउ द्या।

मंगेश पाडगावकर

Monday, March 27, 2017

शालिवाहन शक

Image result for गुढीपाडवाशालिवाहन शकाचा प्रारंभ गौतमीपुत्र शतकर्णी (शालिवाहन ) याने इसवी सन ७८ मध्ये केला. शकांवर मिळविलेल्या विजयाच्या स्मृतीप्रीत्यर्थ हे संवत्सर चालू केले.

शक हे भारताच्या वायव्येला असणाऱ्या प्रदेशातील रहिवासी होते.  त्यांच्या बाजूलाच कुशाण हे टोळीपद्धतीने  राहणारे समूह होते.  कुशाणांच्या बाजूला असणाऱ्या हुण (हान?) वंशाच्या लोकांनी कुशाणांवर आक्रमण करून त्यांना हुसकावून लावले. कुशाणांनी शक वंशियांवर हल्ला करून त्यांचा प्रदेश बळकाविला. यामुळे विस्थापित झालेल्या शकांनी भारतावर हल्ले चालू केले. यावेळी भारतात गणराज्ये आणि छोटी राज्ये अस्तित्वात होती. त्यांचा शकांपुढे पाडाव लागला नाही आणि सिंध, गुजरात आणि राजस्थानात शंकांची राजवट सुरु झाली. शकांनी दक्षिण भारतावर हल्ल्याची तयारी सुरु केली.
राजा विक्रमादात्याने शकांचा पाडाव केला. आणि स्वत:चे शक चालू केले.
तरीही शाकांचा उपद्रव चालूच होता.  मग गौतमीपुत्र सातकर्णी याने शाकांचा पूर्ण पराभव केला आणि शके संवत्सर चालू केले.
त्यानंतर हुणांच्या त्रासाला कंटाळून कुशाणांनी भारतावर आक्रमण केले आणि कुशाण राजा कनिष्क भारताचा सम्राट बनला. कुशाण भारतीय संस्कृतीत सामावले गेले.
महाराष्ट्र, कर्नाटक आणि आंध्रप्रदेश येथे तसेच कंबोडिया येथे शालिवाहन संवत्सर पाळले जाते. १६३३ पर्यंत जावामध्येही शालिवाहन संवत्सर पाळले जात होते.

भारतीय अर्थव्यवस्था लेख ५

भारतीय प्राचीन अर्थव्यवस्था कृषीअर्थव्यवस्था नव्हती तर औद्योगिक भक्कम अर्थव्यवस्था होती हे आपण मागील लेखांत पहिले. भारताचा GDP जगाच्या तीस टक्के होता हे ही आपण पहिले. ब्रिटीश राजवटीने आपल्या अर्थव्यवस्थेचा पाया खिळखिळा केला. आपली अर्थव्यवस्था कृषिप्रधान होती असा समाजही त्यांनी करून दिला. त्यामुळे तसेच पाश्चात्य अर्थव्यवस्थेचे अनुकरण करण्याचा प्रयत्न केल्यामुळे आपण प्रगती करू शकलो नाही.
अर्थव्यवस्थेचा विकास करण्यासाठी पुढील बाबी आवश्यक असतात
1> कच्च्यामालापासून पक्क्यामालापर्यंत  वस्तू, माहिती आणि पैसे सर्व पातळ्यांवर योग्य प्रकारे पोचविण्याची व्यवस्था (Supply Chain Management)
2> उर्जेचा योग्यआकारे वापर
3> सुरक्षितता

प्राचीन भारताची Supply Chain Management किती भक्कम होती हे आपण आधीच्या भागात पहिले.

येथे उर्जेच्या वापराबाबतही अत्यंत उत्कृष्ठ व्यवस्था होती. बैल हा येथील उर्जेचा मुख्य स्त्रोत होता. येथील उष्ण हवेत उन्हातही चांगले काम करू शकतील अशी बैलांची वाणे विकसित केली गेली होती. चांगले काम करवून घेण्यासाठी अंडे चेपालेला बैल तर प्रजोत्पादनासाठी मोकळा सोडलेला वळू अशीही विभागणी होती.
शेतकऱ्याकडे एकाच बैलजोडी असेल तरीही तो त्यापासून वाहतूक आणि शेतीची सर्व कामे करून घेऊ शकत होता. आजूबाजूच्या रानातून बैलांना चारा मिळत होता, त्यांची विष्ठा शेतीला खात म्हणून उपयोगी होती. कमीत कमी प्रदूषण करून उर्जा मिळविणारी ही व्यवस्था होती.बैलांबरोबर स्वाभाविकच गायीही शेतकऱ्यांकडे असत. त्यामुळे शेतकऱ्यांच्या पौष्टिक आहाराचा प्रश्नही सुटत असे.

आपल्या प्राचीन राजांना सुरक्षिततेच्या प्रश्नाची जाणीव होती. भारताला नैसर्गिक संरक्षण लाभल्याने खैबर खिंडीव्यतिरिक्त येथे येण्यास वाव नव्हता. परंतु गेल्या हजार-दीड हजार वर्षात संरक्षणाकडे अक्षम्य दुर्लक्ष झाले. अहिंसेच्या अतिरेकी कल्पना समाजात रुजल्याने हे झाले असावे. मिळविलेल्या संपत्तीचे रक्षण करता येत नसेल नसेल तर ही संपत्ती चोरांच्याच हातात जाते हा धडा आपण गेल्या हजार-पंधराशे वर्षात शिकलो.

या आपल्या प्राचीन समृद्ध अर्थव्यवस्थेतून आपण सध्याच्या काळासाठी काही धडे घेणार आहोत का?
पाश्चात्यांचे अंधानुकरण करून आपल्याकडे समृद्धी येणार नाही तर आपल्या समाजात रुजलेल्या कल्पनांचा उपयोग केला आणि समाजाला योग्य दिशेने नेले तरच येथे समृद्धी येऊ शकेल आणि नांदू शकेल.

याबद्दल आपल्याला काय वाटते? मी प्रतिक्रिया जाणून घेण्यास उत्सुक आहे.

<<लेखमाला समाप्त >>

Saturday, March 25, 2017

भारतीय अर्थव्यवस्था : लेख ४

भारतीय अर्थव्यवस्था कृषिप्रधान नसून उद्योगप्रधान होती हे पहिल्या भागात पहिले. भारताचे सकल राष्ट्रीय उत्पन्न मुघल राजवटीच्या अंतापर्यंत (GDP) जगाच्या उतपान्नाच्या ३०% होता हे आपण दुसऱ्या भागात आकडेवारीनिशी पहिले. पंचक्रोशीची रचना आणि त्यातील नगर-खेडी यांचे संबंध हे तिसऱ्या भागात पहिले. आता नगरांची रचना आणि त्यांचा अर्थव्यवस्थेत असलेला सहभाग यांचा विचार करुया.
भारत हे अनेक छोट्या नगरांचे बनलेले राष्ट्र होते. ही नगरे प्रामुख्याने नदी किनाऱ्यावर वसली होती. (गंगेच्या किनाऱ्यावर ब्रिटीश आले तेव्हा साडेतीनशे नगरे होती) त्यामुळे नगरात मुबलक पाणी होते. जी नगरे नदीकिनाऱ्यावर नव्हती तेथे भरपूर मोठी तळी होती. त्यामुळे भूगर्भात भरपूर पाणी होते. विहिरींद्वारे या पाण्याचा उपसा होत असे.
नगरांमध्ये आपसात व्यापार होता. हा प्रामुख्याने जलमार्गाने होत असे. यामुळे ही वाहतूक कमी खर्चाची होती. जेथे नगरे नदीकाठाशी नव्हती ती परस्परांशी रस्त्याने जोडलेली होती. हे रस्ते थेट बंदरापर्यंत जात होते. या बंदरांतून परदेशांशी व्यापार होत असे. त्यामुळे येथील बंदरे भरभराटीस आली होती. भिवंडी, चौल, सोपारा ही महाराष्ट्रातील प्रमुख बंदरे होती. घोडबंदर रोड येथे अरबी घोड्यांचा व्यापार चालत असे. येथील राजांना व्यापाराचे महत्व पटले होते. म्हणूनच बंदरापर्यंत जाणारे रस्ते सुस्थितीत असतील आणि दरोडेखोरांपासून सुरक्षित रहातील याची काळजी ते घेत असत. अहिल्यादेवी होळकर यांनी बांधलेला इंदोर-कल्याण रस्ता आजही राष्ट्रीय महामार्ग म्हणून वापरला जातो. नगरे अथवा बंदरांमधील वाहतुकीसाठी (रस्ते वाहतूक) अनेक बैलाच्या मोठ्या बैलगाड्या वापरल्या जात. ‘हिंदू’ कादंबरीमध्ये अशा बत्तीस बैलांच्या बैलगाड्यांचा उल्लेख आहे. या बैलगाड्या असलेल्या आणि आंतरराज्य वाहतुकीचा व्यवसाय असलेल्या जमाती येथे होत्या.
येथे खेड्यात कृषिमालाचे उत्पादन होत असे. शेतकरी आपल्या बैलगाडीतून हे उत्पादन जवळच्या नगरात देत असे. नगरात या मालावर प्रक्रिया होऊन त्यातील काही खेड्यात परत येत असे तर बहुतांश माल अन्य नगरात पुढील प्रक्रियेसाठी अथवा विकण्यासाठी जात असे. प्रक्रिया झालेला बराचसा माल परदेशात निर्यात होत असे. अशी ही निर्यातप्रधान अर्थव्यवस्था होती.
 पुढील भागात आपण या अर्थव्यवस्थेच्या काही विशेष अंगांकडे पाहू.

भारतीय अर्थव्यवस्था : लेख ३

भारताची अर्थव्यवस्था कृषिप्रधान कधीच नव्हती तर येथे कृषिप्रधान आणि उद्योगप्रधान अर्थव्यवस्थेचा सुंदर मेळ साधला गेला होता हे आपण आपल्या पहिल्या भागात पहिले. यामुळे आपली अर्थव्यवस्था जगात अत्यंत भक्कम गणली जात होती. मोगल काळापर्यंत आपले सकल राष्ट्रीय उत्पन्न (GDP) जगाच्या उत्पन्नाच्या तीस टक्के होते हे आपण दुसऱ्या भागात आकडेवारीनिशी पहिले. या अर्थव्यवस्थेची अशी कोणती वैशिष्ट्ये होती की ज्यामुळे आपण हे साध्य करू शकलो हे या भागात पाहू.
प्राचीन भारताची रचना ही एक नगर आणि त्या भोवती पंचक्रोशीत वसलेली गावे अशी होती. म्हणजेच ही व्यवस्था ग्रामप्रधान नव्हती तर नागरी व्यवस्था होती. (आपल्या जुन्या गोष्टींची सुरुवात 'एक आटपाट नगर होते' अशीच होत असे हे अनेकांना आठवत असेल).
ही पंचक्रोशीत वसलेली गावे नगरांशी रस्त्याने जोडलेली असत. हा ग्रामीण भाग ते नगर अशी वाहतूक प्रामुख्याने बैलगाड्यांच्या सहाय्याने होत असे. नगरांना लागणारे कृषी साहित्य आजूबाजूच्या गावांतून येत असे. नगरे या मालावर प्रक्रिया करून तो विक्रीयोग्य बनवीत असत. शेतकरी स्वत:च्या बैलगाडीतून ही वाहतूक करीत असत.
शहरात निर्माण होणारा कचरा पंचक्रोशीतील ग्रामीण भागासाठी खत म्हणून सहज वापरता येत असे. कृषी मालाचा कचरा बैलाना खाणे म्हणून तेथेच उपयोगात आणता येई. नगरे आणि खेडी जवळ असल्याने कृषीमालाची नासाडी होण्याचे प्रमाण अत्यंत कमी होते. नगरात निर्माण होणारे सांडपाणी तेथेच जिरवून विहिरीद्वारे पुनर्वापर होत असे. म्हणजेच नागरी संस्कृती असूनही सांडपाण्याचा निचरा, कचऱ्याची विल्हेवाट हे आज भेडसावणारे प्रश्न नव्हते.
लग्ने बहुदा पंचक्रोशीतच होत असत. त्यामुळे पंचक्रोशी (ज्यात नगर आणि त्याभोवतालची खेडी आली) हे एक अत्यंत घट्ट धाग्यांनी बांधलेले एकक होते.
या नगरांचे एकमेकांशी असलेले संबंध आणि त्यांचे अर्थव्यवस्थेत असलेले स्थान यांचा पुढील भागात उहापोह करू.

भारतीय अर्थव्यवस्था : लेख २

या आधीच्या पोस्टमध्ये आपण आपल्या प्राचीन अर्थव्यवस्थेतून काही शिकता येते काय हे बघण्याचा मानस व्यक्त केला होता.
साहजिकच पहिला प्रश्न उपस्थित होतो, भविष्यकाळाकडे न बघता आपण आपल्या रम्य भूतकाळात का रममाण होत आहोत? वर्तमानातून पळ काढण्यासाठी ही सबब नाही ना?
आपण हे लक्षात ठेवले पाहिजे की समाजाची मानसिकता वर्षानुवर्षे घडत असते. सामाजिक संबंध, नैतिकतेच्या कल्पना यांचा पगडा मनावर असतो असतो. या सगळ्यातूनच समाज घडत असतो आणि समाजाची आर्थिक-सामाजिक प्रगती होत असते. म्हणूनच इतिहासाचे महत्व असते.
भारतीय अर्थव्यवस्था ही जगातील एक समृद्ध अर्थव्यवस्था होती. येथील समृद्धी पाहूनच आपल्यावर सतत एक हजार वर्षे अतिक्रमणे होत होती. अल्लाद्दीन खिलजीने देवगिरी येथून काहीशे हत्तींवर सोने लादून नेल्याचा उल्लेख आहे. प्रथम मलाही ही भाकडकथा वाटली. परंतु नंतर History of Gold चा अभ्यास करताना उलगडा झाला. युरोपमध्ये सरदारांमध्ये रेशमी कपडे वापरण्याची फॅशन आली होती. परंतु रेशमी कापड केवळ सोन्याच्या बदल्यात मिळत असे. यामुळे युरोपमधील सोने संपत आले. शेवटी ओटोमानसाम्राज्याच्या सम्राटाने या 'सोन्याच्या बदल्यात रेशीम' व्यापाराला बंदी घातली.
रेशमाच्या कापडाच्या निर्मितीचे पश्चिम भारतातील प्रमुख केंद्र देवगिरीजवळील पैठण होते हे लक्षात घेतले तर देवगिरी साम्राज्याच्या संपन्नतेचा उलगडा होतो.
म्हणजेच भारतात सोन्याचा धूर निघत होता ही कविकल्पना नाही.
भारतीय अर्थव्यवस्थेचा मागोवा घेताना भारताच्या सकल राष्ट्रीय उत्पन्नाचे (GDP) आकडे हाती आले.
(Ref: http://cgijeddah.mkcl.org/Web…/History-of-Indian-Economy.pdf)
Years 1000AD 1500AD 1600AD 1700AD
India 33,750 60,500 74,250 90,750
China 26,550 61,800 96,000 82,800
West Europe 10,165 44,345 65,955 83,395
World Total 116,790 247,116 329,417 371,369
म्हणजेच भारताचा GDP मोगल काळापर्यंत जगाच्या ३०% होता. परंतु इंग्रजांनी येथे पाय रोवल्यावर भारताची अर्थव्यवस्था उध्वस्त केली. एवढेच नाही तर आपल्या आर्थिक इतिहासाबद्दल आपल्याला भ्रामक समजुती करून दिल्या, आपल्याला आपल्याबद्दल न्यूनत्वभावना (Inferiority Complex) निर्माण केला.
आता आपण आपल्या दैदिप्यमान आर्थिक कालखंडाचा आढावा घेऊन त्यातील वैशिष्ट्ये शोधली पाहिजेत आणि त्याचा उपयोग सध्याची अर्थव्यवस्था सुधारण्यासाठी कसा होईल हे पहिले पाहिजे.
आपण पुढील लेखात याचा उहापोह करू.

भारतीय अर्थव्यवस्था लेख १

आज शहरे बकाल आणि खेडी भकास झाली आहेत. आपले जीवनमूल्य वाढवायचे असेल तर शहरे खेडी यात समतोल साधला गेला पाहिजे. आपल्या प्राचीन व्यवस्थेने यात समतोल साधला होता. त्याकडे पाहून आपल्याला काही शिकता येईल.
'भारत हा कृषिप्रधान अर्थव्यवस्थेचा देश होता' ही आपली पाश्चात्य देशांनी करून दिलेली भामक समजूत आहे. कृषिप्रधान अर्थव्यवस्था असलेले देश कच्च्या मालाची निर्यात करतात आणि पक्का माल आयात करतात. भारतात अशी व्यवस्था (इंग्रज राजवटीचा काल सोडता) कधीच नव्हती. भारत हा पक्क्या मालाची निर्यात करणारा देश म्हणूनच ओळखला जात होता. येथील मलमलीला जगात प्रचंड मागणी होती. येथील रेशमाचे कापड पश्चिमेकडील देश सोन्याच्या बदल्यात घेत असत. यामुळे युरोपातील सोने संपत आले असल्याचे उल्लेख आहेत. येथे कच्च्या रेशमाची आयात चीनमधून केली जात असे आणि पक्के रेशमाचे कापड निर्यात होत असे. म्हणजेच हा कृषी अर्थव्यवस्था असलेला देश नव्हे. परंतु आपली इंग्रजांनी तशी समजूत करून दिल्याने आपल्या अर्थव्यवस्थेला आपण योग्य दिशा देऊ शकलो नाही. याचा परिणाम बकाल शहरे आणि भकास खेडी यात झाला. मग शेतकरी गरीब होत गेला, शेतकरी आत्महत्या करू लागला. कर्जमुक्ती/कर्जमाफी सारख्या तात्पुरत्या मलमपट्टीने (मूळ रोगावर इलाज न केल्याने) ही परिस्थिती अधिकच चिघळली.
आपल्या पूर्वजांनी ग्रामीण आणि नागरी अर्थव्यवस्थेमध्ये समन्वय कसा साधला होता, आताच्या परिस्थितीत त्यातून काही शिकण्यासारखे आहे काय हे पुढील पोस्टमधून पाहू.